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________________ १-८] १. पूजाफलम् ८ ३१ स्थितैः स्वपुरुषाण समर्पिताः। श्रेणिकः केनचित् ग्राहयित्वा स्वपुरुषहस्ते दापितवान् । एकदा कुमारानाहूयोक्तवान् राजा तृणबिन्दुजलघटमेकैकमा नयन्त्विति । ततः प्रातरेकैकं घटमध्यक्षेण सह गृहीत्वान्योन्यं यथा न पश्यति तथा सतृणप्रदेशं गताः। हस्तेन जलमादाय नूतनघटे निक्षिपन्ति तत्तदैव शुष्यति । सर्वेऽपि रिक्ता आगताः। श्रेणिको वस्त्रं सान्द्रं तृणस्योपरि प्रसार्य संगृहोतजलं घटे निःपीड य पूरयित्वा गृहीत्वागत्य राज्ञो दर्शितवान् । एकदा सर्वेभ्यः पायसं भोक्तुं परिविष्टं श्वानश्च मुक्तास्तैोजनभाजनानि वेष्टितानि। सर्व कुमारास्तान् त्यक्त्वा नष्टाः । श्रेणिकः सर्वाणि संगृह्य एकैकं श्वभ्यो निक्षिपन् भुक्तवान् । अन्यदा नगरदाहे सिंहासनादिकं निःसारितवानिति सर्वाणि चिह्नानि तस्यैव मिलितानि । ततस्तं राज्याहं विशाय गूढवेषधारिपञ्चशतसहस्रभटेर्मातापितृभ्यामसन्तमपि दोषं व्यवस्थाप्य देशानिर्झटितः। एकाकी गच्छन् नन्दिग्रामे सभामण्डपं प्रविष्टः । तत्र वयोज्येष्ठमिन्द्रदत्तनामानं वैश्यमपश्यदुक्तवांश्च । माम, एहि मया सह ब्राह्मणान्तिकमित्युभावपि तदन्तिकं गत्वा आवां राजपुरुषौ राजकार्येण गच्छन्तावास्वहे इति भोजनादिकं दीयतामित्युक्ते तैरवादीदिदमग्रहारं ऊपर धराकर ले गया और उसे अपने पुरुषके हाथमें दिलाया । एक दिन राजाने कुमारोंको बुलाकर यह कहा कि तृणबिन्दुओं ( ओसबिन्दुओं ) के जलसे भरे हुए एक-एक घड़ेको लावो। तब प्रातःकालमें वे कुमार अध्यक्ष ( निरीक्षक ) के साथ एक-एक घड़ा लेकर ऐसे तृणयुक्त प्रदेशमें गये जहाँ कि कोई एक दूसरेको न देख सके । वहाँ वे हाथसे उस जलको लेकर नवीन घड़ेमें रखने लगे, किन्तु वह उसी समय सूख जाता था। इस प्रकार वे अन्तमें सब ही खाली हाथ वापिस आये । परन्तु श्रेणिकने सघन वस्त्रको घासके ऊपर फैलाकर और फिर जलसे परिपूर्ण उस वस्त्रको निचोड़कर उक्त जलसे घड़ेको भर लिया। पश्चात् उसने उसको लाकर राजाको दिखलाया । एक समय सब कुमारोंको खानेके लिए खीर परोसी गई, साथ ही कुत्तोंको भी छोड़ा गया । उन कुत्तोंने भोजनके पात्रोंको घेर लिया। तब सब कुमार उन पात्रोंको छोड़कर भाग गये। किन्तु श्रेणिकने उन सब पात्रोंका संग्रह करके और उनमेंसे एक-एक प्रत्येक कुत्तेको देकर अपने पात्र में स्थित खीरका स्वयं उपभोग किया। दूसरे दिन नगरके अग्निसे प्रज्वलित होनेपर श्रेणिकने सिंहासन आदि ( छत्र-चामरादि ) को बाहिर निकाला। इस प्रकार ज्योतिषीके द्वारा निर्दिष्ट वे सब चिह्न उस श्रेणिकके ही पाये गये। इससे उसको ही राज्यके योग्य जानकर माता-पिताने गुप्त वेषको धारण करनेवाले पाँच लाख सुभटोंके साथ अविद्यमान भी दोषको उसमें विद्यमान बतलाकर-कुछ दोषारोपण करके-उसे देशसे निकाल दिया । वह वहाँ से अकेला निकलकर नन्दिग्रामके भीतर सभामण्डपमें प्रविष्ट हुआ। वहाँ उसने अवस्थामें अपनेसे बड़े किसी इन्द्रदत्त नामक वैश्यको देखकर कहा कि हे मामा ! मेरे साथ ब्राह्मणोंके पास आओ। इस प्रकार उन दोनोंने ब्राह्मणों के पास जाकर उनसे कहा कि हम दोनों राजपुरुष हैं और राजाके कार्यसे जाते हुए यहाँ उपस्थित हुए हैं, हम दोनोंको भोजन आदि दो । यह सुनकर ब्राह्मणोंने कहा कि यह सर्वमान्य अग्रहार है, इसलिए यहाँ राजपुरुषोंको पीनेके लिए १. ब -प्रतिपाठोऽयम् । पश द्वारे स्थितैः स्व० फ द्वारे स्थितं स्व स्व० । २. फ विंदुजलमेकैकं घटमा० । ३. पश अध्यक्षेण संगहीत्वा । ४. फश तत्तदेव । ५. फ गच्छतामावामिति ब गच्छंतावस्वहें इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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