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________________ : १-६ ] १. पूजाफलम् ६ २३ गृहीत्वा पत्तनाद् बहिर्धमाव इति । तत्स्वरूपे राशः कथिते तेन स्वमित्रवायुवेगखेचरेण मेघाडम्बरादिकं कारयित्वा नर्मदातिलकद्विपमलंकृत्वा राज्ञो स्वयं च समारुह्य परिजनेन पुरानिर्गतौ । स च गजोऽङ्कशमुल्लङ घ्य पवनवेगेन गन्तुं लग्नः । सर्वोऽपि जनः स्थितः । महाटव्यां वृक्षशाखामादाय राजा स्थितः । स्वपुरमागत्य हा पद्मावति तव किमभूदिति महाशोकं कृतवान् । विबुधैः संबोधितः। इतः स हस्ती नानाजनपदानुल्लङध्य दक्षिणं गत्वा श्रान्तो महासरसि प्रविष्टो जलदेवतया समुत्तार्य तटे उपवेशिता सा। अनावसरै तत्रागतेन भट्टनाममालाकारेण रुदतो संबोधिता-हे भगिनि, एहि मद्गृहमित्युक्ते तयोक्तं 'कस्त्वम्' । तेनोक्तं मालिकोऽहमिति । ततो हस्तिनापुरे स्वगृहे मद्भगिनीयमिति स्थापिता । तस्मिन् कापि गते तद्वनितया मारिदत्तया निोटिता पितृवने पुत्रं प्रसूता। तदा मातङ्गेन तस्थाः प्रणम्योक्तं-मत्स्वामिनी त्वमिति । तयोक्तं 'कस्त्वम् । स आह- अत्रैव विजयार्धे. दक्षिणश्रेण्यां विद्युत्प्रभपुरेशविद्युत्प्रभविद्युल्लेखयोः सुतोऽहं बालदेवः । स्ववनिताकनकमालया दक्षिणं क्रीडार्थगच्छतो मम रामगिरौवीरभट्टारकस्योपरि न गतं विमानम् । क्रुद्धेन मया तस्योपसर्गः कृतः। पद्मावत्या तं निवार्य ममइस दोहलकी सूचना राजाको की। तब राजाने अपने मित्र वायुवेग विद्याधरके द्वारा मेघसमूह आदिकी रचना करायी। तत्पश्चात् नर्मदातिलक हाथीको सुसज्जित करके उसके ऊपर रानी और स्वयं भी ( दोनों ) चढ़कर सेवक जनके साथ नगरके बाहर निकले । वह हाथी अंकुशकी परवाह न करके वायुवेगसे शीघ्र गमनमें उद्यत हुआ। इस कारण सब सेवक जन पीछे रह गये । राजा महावनमें एक वृक्षकी शाखाको पकड़कर स्थित रह गया। पश्चात् वह नगरमें आकर 'हा ! पद्मावती, तेरा क्या हुआ होगा' इस प्रकार पश्चात्ताप करने लगा। तब विद्वानोंने उसे सम्बोधित किया। इधर वह हाथी अनेक देशोंको लाँधकर दक्षिणकी ओर गया और थककर किसी महा सरोवरके भीतर प्रविष्ट हुआ। उस समय जलदेवताने पद्मावतीको हाथीके ऊपरसे उतारकर तालाबके किनारेपर बैठाया । इस अवसरपर वहाँ एक भट नामक माली आया। उसने रोती हुई देखकर उससे कहा कि हे बहिन ! आ, मेरे घरपर चल । ऐसा कहनेपर पद्मावतीने उससे पूछा कि तुम कौन हो । उसने कहा कि मैं माली हूँ। तत्पश्चात् उसने उसे हस्तिनापुरके भीतर अपने घरमें 'यह मेरी बहिन है' ऐसा कहकर स्थापित किया। पश्चात् मालीके कहीं बाहर जानेपर उसकी पत्नी मारिदत्ताने उसे घरसे निकाल दिया। तब उसने वहाँ से निकलकर और श्मशानमें जाकर पुत्रको उत्पन्न किया । उस समय किसी चण्डालने आकर उसे प्रणाम किया और कहा कि तुम मेरी स्वामिनी हो। पद्मावतीने उससे पूछा कि तुम कौन हो । उत्तरमें उसने कहा कि मैं इसी विजयार्ध पर्वतके ऊपर दक्षिण श्रेणिमें स्थित विद्युत्प्रभ पुरके स्वामी विद्युत्प्रभ और विद्युल्लेखाका बालदेव नामक पुत्र हूँ। मैं अपनी पत्नी कनकमालाके साथ दक्षिणमें क्रीड़ा करनेके लिए जा रहा था। मेरा विमान रामगिरि पर्वतके ऊपर स्थित वीर भट्टारकके ऊपरसे नहीं जा सका। इससे क्रोधित होकर मैंने उक्त वीर भट्टारकके ऊपर उपसर्ग किया। पद्मावती देवीने उसको दूर करके मेरी विद्याओंको नष्ट कर १. ब -प्रतिपाठोऽयम्, प फ श सा । अवसरे । २. फ ब भट। ३. फ श 'विद्युत्प्रभपुरेश' नास्ति । ४.ब-प्रतिपाठोऽयम्, प फ श उपरितनगतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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