________________
३३२
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-१६, ५७ :
तद्दर्शनेन सर्वेऽपि कोपाग्निना प्रज्वलिता ऊचुः सोमशर्मण' [न् ] त्वद्गृहरसवती क्षपणकेनोच्छिष्टा कृतेति विप्राणां भोक्तुमनुचितेति व्याघुटिताः । तदा सोमशर्मा स्वामिनोऽहं श्रीमान् यथेष्टं प्रायश्चित्तं दत्त्वा श्राद्धकार्य क्रियतामिति भणित्वा तत्पादेषु पपात । तमतिभक्तं श्रीमन्तं च दृष्ट्वा केचिद् द्विजा ऊचुः - विप्रवचनेन तावत्सर्वशुद्धमित्यस्य प्रायश्चित्तं दत्त्वा भोक्तुमुचितम् | नो चेत् श्लोकम् -
अजाश्वा मुखतो मेध्या गावो मेध्यास्तु पृष्ठतः । ब्राह्मणाः पादतो मेध्या स्त्रियो मेध्यास्तु सर्वतः ॥
इति स्मृतिवचनादस्य प्रायश्चित्तं दत्त्वाजाश्वमुखस्पर्शेण रसवतीं विशोध्य भोक्तव्यमिति । कैश्चिदवाद्यन्यस्य दोषस्य प्रायश्वित्तमस्त्यस्य दोषस्य यद्यस्ति तर्हि निरूप्यतामिति परस्परं विवादं कृत्वा पादेषु पतितं तं निर्लोठ्य स्व-स्वगृहं जग्मुस्ते । सोमशर्मा गृहं प्रविश्याग्निलां मस्तक केशेषु धृत्वा मे विप्रोत्तमस्यैतस्या जैनात्मजायाः पापिष्ठायाः परिणयनेन एतद्रहु न भवतीति णित्वा दण्डैर्दण्डैर्घोरं जघान, मूच्र्छाप्राप्तां तत्याज, अतिदुःखी बभूव तस्थौ । सा चेतनामवाप्य लघुपुत्रस्य हस्तं धृत्वा बृहत्पुत्रं पृष्ठतो निधाय तन्मुनेरूर्जयन्ते स्थिति जनात्
हुए उन मुनिराजको देख लिया । तब उनके देखनेसे कुपित होकर सब ही ब्राह्मण बोले कि हे सोमशर्मा ! तुम्हारे घर की रसोईको नङ्गे साधुने जूठा कर दिया है, इसलिए वह ब्राह्मणों के खाने योग्य नहीं रही । इस प्रकार कहकर वे सब वापस जाने लगे । तब वह सोमशर्मा बोला कि हे स्वामिनो ! मैं धनवान् हूँ, इसलिए आप लोग मुझे इच्छानुसार प्रायश्चित्त देकर श्राद्ध कार्यको पूरा कीजिये । इस प्रकार कहता हुआ वह उनके पाँचोंमें गिर गया । तब उसको अतिशय भक्त एवं धनवान् देखकर कुछ ब्राह्मण बोले कि ब्राह्मणके कहनेसे सच शुद्ध होता है । इसलिए उसे प्रायश्चित्त देकर भोजन कर लेना उचित है । यदि इसपर विश्वास न हो तो इस श्लोकको देख लीजिये
बकरे और घोड़े मुखसे पवित्र हैं, गायें पिछले भाग ( पूँछ ) से पवित्र हैं, ब्राह्मण पाँवसे पवित्र हैं, और स्त्रियाँ सब शरीर से पवित्र हैं ॥ १७॥
इस स्मृति वचनके अनुसार इसको प्रायश्चित्त देकर बकरे और घोड़के मुख के स्पर्श से रसोईको शुद्ध कराकर भोजन कर लेना चाहिये । यह सुनकर कुछ ब्राह्मण बोले कि अन्य दोषों का प्रायश्चित्त है, परन्तु यदि इस दोषका प्रायश्चित्त है तो उसे दिखलाया जाय । इस प्रकार से वे आपसमें विवाद करते हुए पाँवों में पड़े हुए उस सोमशर्मासे रूठकर अपने-अपने घर चले गये । तब सोमशर्मा घरके भीतर जाकर अग्मिलाके शिरके बालोंको खींचता हुआ बोला कि मुझ जैसे श्रेष्ठ ब्राह्मणके लिए इस अतिशय पापिनी जैन लड़कीके साथ विवाह करनेसे यह कुछ बहुत नहीं हैइससे भी यह अधिक अनिष्ट कर सकती है, ऐसा कहते हुए उसने उसे दण्डोंसे मारना प्रारम्भ किया। इस प्रकारसे मारते हुए उसने उसे तब ही छोड़ा जब कि वह उसकी भयानक मार मूर्छित हो गई। उपर्युक्त घटनासे वह बहुत दुःखी रहा। उधर जब अग्निलाकी मूर्छा दूर हुई तब उसने लोगोंसे यह पूछा कि वे मुनि कहाँपर स्थित हैं । इस प्रकारसे जब उसे यह ज्ञात हुआ कि
-
१. जपफश सोमशर्मण व सोमश । २. ब तमपि भवतं । ३. ब परिणयने । ४. फ ब एतद्बहुन । ५. ब दुःखी भूत्वा तस्थो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org