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पुण्याaasaratशम्
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ज्ञापनीय इति विज्ञाप्य व्याघुटितः ।
कुमारोऽग्रे गच्छन्नेकस्मिन् प्रदेशेऽवधिबोधयतिमपश्यत् तं ननाम, धर्मश्रुतेरनन्तरं पृच्छति स्म 'मे भ्रातरो मे किमिति द्विषन्ति, माता स्निह्यति, केन पुण्यफलेनाहमेवंविधो जातः' इति । स श्राह परमेश्वरः - अत्रैव मगधदेशे भोगवती ग्रामे ग्रामपतिः कामवृष्टि, भार्या मृदाना, तत्कर्मकर एकः सुकृतपुण्यः । मृष्टदानाया गर्भसंभूतौ कामवृष्टिमृतो यथा यथा
वर्धते तथा तथा ये केचन प्रयोजका गोत्रजनास्ते मृताः । प्रसूत्यनन्तरं मातुर्माता ममार । ग्रामाधिपः सुकृतपुण्यो बभूव । मृष्टदाना स्वतनयस्याकृतपुण्य इति नाम विधायातिदुःखेन परगृहे पेषणं कृत्वा तं पालयन्ती तस्थौ । अत्र कुमारः पुनस्तं पप्रच्छ 'केन पापफलेन स तथाविधो जातः' इति । स आहात्रैव भूतिलकनगरेऽतीवेश्वरो जैनो वैश्यो धनपतिः । सोऽतिविशिष्ट जिनगेहं कारयति स्म, तत्र बहूनि मणिकनकमयान्युपकरणानि कारितवान् । तद्रत्नादिप्रतिमानां प्रसिद्धिमाकर्ण्य कश्चिद् व्यसनी पुमान् मायया ब्रह्मचारी भूत्वातिकायक्लेशादिना देशमध्ये महाक्षोभं कुर्वन् क्रमेण भूतिलकं प्राप्तो धनपतिना महासंभ्रमेण स्वजिनगृहमानीतस्तं महाग्रहेण जिनालयस्योपकरणरक्षकं कृत्वा श्रेष्ठी द्वीपान्तरं गतः । इतस्तदुपकरणं तेन सर्व भक्षितम् । व्यसनेन जिनप्रतिमाविलोपनोपार्जितपापेन कुष्टमेरे द्वारा आपका कुछ प्रयोजन सिद्ध होता हो तब मुझे आज्ञा दीजिए। इस प्रकारसे प्रार्थना करके वह किसान वापस चला गया ।
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तचात् कुमारने आगे जाते हुए एक स्थानमें किसी अवधिज्ञानी मुनिको देखकर उन्हें नमस्कार किया । फिर उसने धर्मश्रवण करने के बाद उनसे पूछा कि मेरे भाई मुझसे किस कारण से द्वेष रखते हैं और माता क्यों स्नेह करती है ? इसके अतिरिक्त मैं जो इस प्रकारकी विभूतिको पा रहा हूँ, वह किस पुण्यके फलसे पा रहा हूँ ? इसपर मुनि बोले- यहाँपर ही मगध देशके भीतर एक भोगवती नामका गाँव है । उसमें एक कामवृष्टि नामका ग्रामपति ( गाँवका स्वामी - जमींदार) रहता था । उसकी पत्नीका नाम मृष्टदाना था । कामवृष्टि के एक सुकृतपुण्य नामक सेवक था । मृष्टदाना के गर्भ रहनेपर कामवृष्टिकी मृत्यु हो गई । जैसे जैसे उसका गर्भ बढ़ता गया वैसे वैसे उसके जो सहायक कुटुम्बी जन थे वे भी मरते गये। प्रसूतिके पश्चात् माताकी - माता (नानी) भी मर गई । तब गाँवका स्वामी सुकृतपुण्य हो गया था। उस समय मृष्टदाना अपने नवजात बालकका नाम अकृतपुण्य रखकर दूसरोंके घर पीसने आदिका कार्य करती हुई उसका पालन करने लगी । इस अवसर पर धन्यकुमारने पुनः उनसे पूछा कि वह अकृतपुण्य बालक किस पाप कर्मके फलसे वैसा हुआ था ? इसके उत्तर में वे मुनिराज इस प्रकार बोले- यहीं पर भूतिलक नामके नगरमें जैन धर्मका परिपालक अतिशय संपत्तिशाली एक धनपति नामका वैश्य रहता था । उसने एक अतिशय विशेषता से परिपूर्ण एक जिनभवन बनवाकर उसमें बहुत-से मणिमय एवं सुवर्णमय छत्रचामर आदि उपकरणों को करवाया । उसमें जो रत्नमय सुन्दर प्रतिमाएँ विराजमान की गई थीं उनकी ख्यातिको सुनकर कोई दुर्व्यसनी मनुष्य कपटसे ब्रह्मचारी बन गया । उसके अतिशय कायक्लेश आदिको देखकर देश के भीतर जनताको बहुत क्षोभ ( आश्चर्य ) हुआ। वह क्रमसे परिभ्रमण करता हुआ भूतिलक नगर में आया । तब धनपति सेठ आदर पूर्वक उसे अपने जिनालय में ले गया । तत्पश्चात् उक्त सेठ आग्रहके साथ उसे जिनालयके उपकरणों का रक्षक बनाकर दूसरे द्वीपको चला गया। इस बीच में उसने जिनालयके सब उपकरणों को खा डाला । तत्पश्चात् दुर्व्यसन और
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