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________________ ३०० पुण्यास्त्रवकथाकोशम् [ ६-५, ४६ : भणित्वा श्रेष्ठी स्वगृहमागतः । वानरोऽव्रत स्वामिन् प्रेषणं देहि । श्रेष्ठी बभाण - सर्व नगरमाय तेन मां तत्पुरं प्रवेशय । वानरः तथा तं प्रवेशयामास । श्रेष्ठी धारिण्या सह राजभवने भद्रासने उपविवेशे । पुनर्वानरः प्रेषणं ययाचे । श्रेष्ठी बभाण - महागङ्गोदकमानीय धारिणी सहितस्य मे राज्याभिषेकं कृत्वा राज्यपट्टे बध्ना [घ्नी] हि। स तथा चकार, पुनः प्रेषणं ययाचे । तदा श्रेष्ठयवोचन्नागदत्तप्रभृति सर्वजनानां गृहाणि दत्त्वा गृहेष्वक्षयं धनधान्यादिकं कृत्वागच्छ । स तथा कृत्वागतः, पुनः प्रेषणं ययाचे । श्रेष्ठयव्रत - मे राजभवनाग्रे महास्तम्भं कृत्वा तन्मूले तन्मानां शृङ्खलां कृत्वा शृङ्खलाये कुण्डलिकां निक्षिप्य तत्र स्वशिरः प्रप्लुत्य तच्चटनोत्तरणं कुर्वन् तिष्ठ यावदहं 'पूर्यते' इति भणामि । स द्वि-त्रिदिनानि तथा कुर्वन् तस्थौ । श्रेष्ठी 'पूर्यते' इति यदा न भणति तदा नष्वा गतः । सुकेतुर्बहुकालं राज्यं कृत्वा स्वशिरः पलितमालोक्य स्वपुत्रं तत्र व्यवस्थाप्य वसुपालादात्मानं मोचयित्वा मणिनागदत्तादिभिर्बहुभिर्भीमभट्टारकान्ते प्रव्रज्य मोक्षं गतः । धारिणी तपसाच्युते देवो जातः । मणिनागदत्तादयो यथायोग्यां गतिं ययुः । तत्पुरं तन्निर्गमनदिने एवादृश्यं जातम् घरपर वापस आ गया । उस समय उस बन्दरने सेठसे कहा कि हे स्वामिन्! अब मुझे अन्य आज्ञा दीजिये । तदनुसार सेठने उसे आज्ञा दी कि समस्त नगर को बुलाकर उसके साथ तुम मुझे उसे नवनिर्मित नगर के भीतर ले चलो । तब बन्दर उसी प्रकारसे उसे उस नगर के भीतर ले गया । नगर में प्रविष्ट होकर सुकेतु सेठ अपनी पत्नी धारिणीके साथ राजभवनमें गया और भद्रासनपर बैठ गया । इसके पश्चात् बन्दरने फिरसे आज्ञा माँगी । इसपर सेठने कहा कि महा गंगा के जलको लाकर धारिणीके साथ मेरा राज्याभिषेक करो और राज्यपट्ट बाँधो । तदनुसार उस बन्दर ने वैसा ही किया । तत्पश्चात् उसने सेठसे अन्य आज्ञा माँगी । इसपर सेठने आज्ञा दी कि नागदत्त आदि समस्त मनुष्यों को घर देकर और उन सब घरोंमें अक्षय धन-धान्यांदिको करके वापस आओ । तदनुसार बन्दर वह सब करके वापस आ गया। वापस आनेपर उसने फिरसे अन्य आज्ञा माँगी । इसपर सेठने कहा कि मेरे राजभवन के सामने एक बड़े खम्भेको बनाकर उसके मूल में उसके ही बराबर साँकल बनाओ और फिर उस साँकलके अन्तमें कुण्डलिका (गोल कड़ा) को बनाकर उसमें अपने शिरको फँसा दो तथा बार-बार तब तक चढ़ो उतरो जब तक मैं 'बस, रहने दो' न कह दूँ | तदनुसार बन्दरने दो तीन दिन तक वैसा ही किया । परन्तु सेठने जब 'बस, रहने दो' नहीं कहा तब वह बन्दर वेषधारी उत्पल देव भागकर चला गया । पश्चात् सुकेतुने बहुत समय तक राज्य किया । एक समय उसे अपने सिरके ऊपर श्वेत बालको देखकर भोगोंसे विरक्ति हो गई । तब उसने अपने पुत्रको राज्य देकर वसुपाल राजासे विदा ली और मणिनागदत्त आदि बहुत जनोंके साथ भीम भट्टारकके समीपमें दीक्षा ले ली । अन्तमें वह तप करके मुक्तिको प्राप्त हुआ । उसकी पत्नी धारिणी तपके प्रभावसे अच्युत कल्पमें देव हो गई । मणिनागदत्त आदि यथायोग्य उस नगरसे बाहर निकला उसी दिन वह नगर गतिको प्राप्त हुए। जिस दिन सेठ सुकेतु अदृश्य हो गया । इस प्रकार जब सुकेतु सेठ १. श नगरं ।। हूय तेन नगरजनेत सह मां । २. ब उपवेशा । ३. प श सर्वे । ४ ब तन्मानं । ५. ब पपस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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