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________________ २.९४ guraanarsोशम् [ ६-४, ४५ : , किमद्भुतम् संक्लेशं मा कुरु । मयोक्तं प्रातरवश्यं मया तपो गृह्यते । तेनोक्तं किं नष्टम्, मयापि गृह्यते । ततोऽपरदिने पुत्रं राज्ये नियुज्य द्वौ बहुभिदक्षितौ इति तपोहेतुः । तदा sarvaरकान्तः शृण्वन् स्थितो निर्गत्य तां नत्वा स्वसुतं कुबेरप्रियं गुणपालनृपस्य समर्प्य कुबेरदत्तादिचतुर्भिः पुत्रैरन्यैश्च दीक्षितो मुक्तिमगमदिति निरूप्य तां प्रणत्य पुरं प्रविष्टा । तदा स मार्जारो मृत्वा तत्र पुरे तलवरनायकभृत्यो विद्युद्वेगनामा भूत्वा स्थितः । स स्वजुनितायाः प्रियदत्तया समं गतायाः किमिति कालक्षेपोऽभूदिति रुष्टः, तया स्वरूपे निरूपिते स जातिस्मरो जज्ञे । तौ स्ववैरिणौ ज्ञात्वा प्रिये, मे तौ दर्शयेति तया तत्र गत्वा araवलोकितवान् दिवा । रात्रावुच्चाय नीत्वा पितृवने एकत्र बन्धयित्वा ज्वलच्चितायामचिक्षिपदवदच्च सोऽहं भवदत्तो येन युवां पूर्वं शोभागनगरे दग्ध्वा मारितौ, जम्बूग्रामे भक्षयित्वा मारिताविति । तदा तौ तपस्विनौ समचित्तं विभाव्य तनुं विहाय हिरण्यवर्मा इसपर मेरे पति रतिवर्मा ने कहा कि संसारी प्राणियों की ऐसी दुष्प्रवृत्ति हुआ ही करती है, इसमें आश्चर्य क्या है ? तुम व्यर्थ में संक्लेश न करो । तब मैंने पति से अपना निश्चय प्रगट किया कि मैं सबेरे अवश्य ही तपको ग्रहण करूँगी । इसपर उसने कहा कि क्या हानि है, मैं भी तेरे साथ तपको ग्रहण कर लूँगा । तत्पश्चात् दूसरे दिन पुत्रको राज्यकार्यमें नियुक्त करके हम दोनोंने बहुतों - के साथ दीक्षा ग्रहण ली है । यही मेरे दीक्षा लेनेका कारण है । इस प्रकार प्रियदत्ता जब प्रभावती से सुरूपा आर्यिकाका वृत्तान्त कह रही थी तब सेठ कुबेरकान्त ( मेरा पति ) अन्तर्गृह के भीतर यह सब सुनता हुआ स्थित था । सो वहाँसे निकलकर उसने उस आर्यिकाको नमस्कार किया और फिर अपने पुत्र कुबेरप्रियको गुणपाल राजाके लिये समर्पित करके कुबेरदत्त आदि अपने चार पुत्रों तथा अन्य बहुत-से जनोंके साथ दीक्षा धारण कर ली । वह मुक्तिको प्राप्त हो चुका है । इस प्रकार अपने पति कुबेरकान्तके वृत्तान्तको कहकर और फिर आर्यिका प्रभावतीको नमस्कार करके प्रियदत्ता अपने नगर के भीतर प्रविष्ट हुई। वापिस आने में कुछ उस समय वह बिलाव मरकर उसी पुरमें प्रमुख कोतवालका विद्युद्वेग नामका अनुचर होकर स्थित था । एक दिन उसकी स्त्री प्रियदत्ता के साथ गई थी । उसे विलम्ब हो गया । तब विद्युद्वेगने रुष्ट होकर उससे विलम्बका कारण पूछा। इसपर उसकी स्त्रीने आर्थिक पास सुने हुए हिरण्यवर्मा और प्रभावती आदिके सब वृत्तान्तको कह दिया । उसे सुनकर विद्युद्वेगको जातिस्मरण हो गया। इससे उसने हिरण्यवर्मा और प्रभावती को अपने पूर्व भवका शत्रु जान लिया । तब उसने अपनी स्त्रीसे कहा हे प्रिये ! वे दोनों (हिरण्यवर्मा और प्रभावती) कहाँ हैं, मुझे दिखलाओ। इस प्रकार वह स्त्रीके साथ जाकर उन्हें दिनमें देख आया । पश्चात् रातमें वह उन दोनों को उठाकर श्मशान में ले गया । वहाँ उसने उन्हें इकट्टा बाँधकर जलती हुई चितामें पटक दिया । फिर वह बोला कि मैं वही भवदत्त हूँ जिसने कि पूर्व जन्म में तुम दोनों को शोभानगरमें जलाकर मार डाला था तथा जम्बूग्राममें भी मारकर खा लिया था । उस समय उन दोनों तपस्वियोंने इस भयानक उपसर्गको सहन करते हुए समताभावपूर्वक शरीरको छोड़ १. ब - प्रतिपाठोऽयम् । श प्रियदत्ताया । २. ब तावलोकितवान् । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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