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________________ २८३ : ६-४, ४५ ] ६. दानफलम् ३-४ [४४-४५] कि भाषे दानजातं सुखगुणदफलं लोके च ददतुर्यन्मोदात्सारसौख्यं दिवि भुवि विमलं पारापतयुगम् । सेवित्वा मुक्तिलाभं सुखगुणनिलयं जात्यादिरहितं तस्मादानं हि देयं विमलगुणगणभव्यैः सुमुनये ॥३॥ जातः श्रेष्ठी कुबेरो नव-सुनिधिपतिः कान्तोत्तरपदः पूर्व श्रीशक्तिसेनः सकृदपि सुगुणः ख्यातः सुददिता । किं भाषे दानसौख्यं ददतगुणवतो जीवस्य विमलं । तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥४॥ अनयोवृत्तयोः कथे सुलोचनाचरित्रे जातेति तदतिसंक्षेपेण निगद्यते-अत्रैवार्यखण्डे कुरुजाङ्गलदेशे हस्तिनापुरे राजा जयो देवी सुलोचना। तौ दम्पती एकदास्थाने आसितौ । तत्र राजा खे गच्छद्विद्याधरयुगं विलोक्य हा प्रभावतीति विजल्पन् मूर्छितोऽभूत्तद्देवी सुलोचनापि पारापतयुगं दृष्ट्वा हा रतिवरेति भणित्वा मूच्छिता जाता। शीतक्रियया परिजनेनोन्मूर्छितावन्योन्यमुखमवलोकयन्तौ तस्थतुः । तदा जनकौतुकमभूत् । तदा सुलोचना बभाण लोकमें जिस दानसे उत्पन्न हुए पुण्यके फलसे दाताकोसुख और अनेक उत्तम गुणोंकी प्राप्ति होती है उस दानके फलके विषयमें भला क्या कहा जाय ? अर्थात् उसका फल वचनके अगोचर है । उस दानकी अनुमोदनासे कबूतर और कबूतरी स्वर्गमें व पृथ्वीपर भी उत्तम सुखको भोगकर अन्तमें उस मोक्षको प्राप्त हुए हैं, जो उत्तम सुख एवं अनेक गुणोंका स्थानभूत तथा जन्म-मरणादिके दुखसे रहित है। इसलिए निर्मल गुणोंके समूहसे सहित भव्य जीवोंका कर्तव्य है कि वे उत्तम मुनिके लिए दान देवें ॥३॥ पूर्वमें जिस शक्तिसेनने एक बार ही मुनिके लिए आहारदान दिया था वह उत्तम गुणोंसे सुशोभित एवं नवनिधियोंका स्वामी प्रसिद्ध कुबेरकान्त सेठ हुआ है । दाताके सात गुणोंसे संयुक्त जीवको दानके प्रभावसे जो निर्मल सुख प्राप्त होता है उसके विषयमें क्या कहा जाय ? अर्थात् वह अनुपम सुखको देनेवाला है। इसीलिए निर्मल गुणोंके समूहसे सहित भव्य जीवों को मुनि आदि उत्तम पात्रके लिए दान अवश्य देना चाहिए ॥४॥ __इन दोनों पद्यों की कथाएँ सुलोचनाचरित्रमें आयी हैं। उन्हें यहाँ अतिशय संक्षेपसे कहा जाता है-- इसी आर्य खण्डमें कुरुजांगल देशके भीतर हस्तिनापुरमें जयकुमार राजा राज्य करता था । रानीका नाम सुलोचना था । एक दिन वे दोनों पति-पत्नी सभाभवन में बैठे हुए थे । वहाँ जयकुमार आकाशमें जाते हुए विद्याधरयुगलको देखकर 'हा प्रभावती' कहता हुआ मूर्छित हो गया। उधर रानी सुलोचना भी एक कबूतर युगलको देखकर 'हा रतिवर' यह कहती हुई मूर्छित हो गई। सेवक जनके द्वारा शीतलोपचार करनेपर जब उनकी वह मूर्छा दूर हुई तब वे दोनों एक दूसरेका मुख देखते हुए स्थित रहे । इस घटनाको देखकर दर्शक जनको बहुत आश्चर्य हुआ । पश्चात् सुलोचना बोली कि हे नाथ ! मैं रतिवरका स्मरण करके मूर्छित हो गई १. प ब ददित्तु । २. ज प ब जात इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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