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१. पूजाफलम् ४
दुःखी बभूव महाशोकं च कृतवान्। संस्कारयितुं च न प्रयच्छति । यदा निद्रापरवशो' ऽभूत्तदा संस्कारिता । तथापि स शोकं न त्यजति । तदा पुत्र्या मुनिसमीपं नीतस्तेन संबोधितः सन् दिगम्बरोऽभूत् । मन्त्रवादपठनेन चारित्रे चलो जातः । विद्यासिद्धिनिमित्तं मन्त्रजपने पुष्पादिकं दातुं पुत्री गिरिगुहामानीता । तया दत्तप्रसवादिना मन्त्रजापं प्रकुर्वतो ऽनेकविद्याः सिद्धाः । तद्बलेन पुरं विधाय स्त्र्यादिकांच भोगान् भुञ्जन्तं पुत्री " संबोधयति । तदा स वदति - पुत्रि, मां मा संबोधयेति । तथापि सा न तिष्ठति । तदा तेन विद्ययाटव्यां त्याजिता । सा धर्मभावनया तत्र स्थिता । पुनस्तेनावलोकिनी प्रस्थापिता । सा तां वदति स्म - हे प्रभावति, यत्र ते प्रतिभाति तत्र ते नयामीति । तयोक्तम् 'कैलासं नय' । नीतां तत्र संस्थाप्य विद्या गता । सा सर्वान् जिनालयान् पूजयित्वा संस्तुत्यैकस्मिन् जिनालये यावतिष्ठति तावत् पद्मावती तत्रागता । देवमभिवन्द्य यावन्निर्गच्छति तावत् कन्यां दृष्ट्रा पृष्टवती का त्वमिति । सा यावदात्मवृत्तान्तं कथयति तावद् देवाः सर्वे समागुः । तान् विलोक्य कन्यया पृष्टा यक्षी 'हे देवि, किमिति देवाः समागताः' इति । तयोक्तम् 'अद्य भाद्रपद शुक्लपञ्चमीदिनं प्रवर्तते । अस्मिन् पुष्पाञ्जलेर्विधानं विद्यते । तत्कर्तु समा
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उसने उसे काट लिया । इससे वह मर गई । जब पुरोहित वापिस आया तो उसने उसे बुलाया, परन्तु उसने कुछ उत्तर नहीं दिया । इससे वह दुखी होकर अतिशय शोकसंतप्त हुआ । वह अविवेकसे मृत शरीरको संस्कार के लिये भी नहीं देता था । ऐसी अवस्थामें जब वह निद्रा के अधीन हुआ तब कहीं बन्धुमतीके मृत शरीरका दाहसंस्कार किया गया । फिर भी उसने शोकको नहीं छोड़ा | तब उसकी पुत्री प्रभावती उसे मुनिके समीपमें ले गई । मुनिके द्वारा समझाने पर वह दिगम्बर (मुनि) हो गया । परन्तु मंत्रवादके पढ़नेसे वह चारित्रके परिपालनमें अस्थिर हो गया । वह विद्याओंको सिद्ध करनेके लिये मंत्रजापमें पुष्पादिकों को देनेके निमित्त पुत्रीको पर्वतकी गुफा में ले आया । उसके द्वारा दिये गये पुष्पादिसे वह मंत्रोंका जप करने लगा । इस प्रकारसे उसे अनेक विद्याएँ सिद्ध हो गई थीं । उसने विद्या बलसे एक नगर तथा स्त्री आदिको बनाया । वहाँ रहकर वह भोगों को भोगने लगा। जब पुत्रीने उसे समझाने का प्रयत्न किया तब वह बोला कि हे पुत्री ! तू मुझे समझानेका प्रयत्न मत कर । फिर भी वह रुकती नहीं है - समझाती ही है । तब उसने उसे विद्याके द्वारा गहन वनमें छुड़वा दिया । वह वहाँ धर्म - भावना के साथ स्थित रही । फिर उसने अवलोकिनी विद्याको भेजा । उसने वहाँ जाकर उससे कहा कि हे प्रभावती ! जहाँ तुझे अच्छा प्रतीत होता हो वहाँ मैं तुझे ले चलती हूँ । प्रभावतीने कहा कि कैलाश पर्वतपर ले चल । विद्या उसे कैलाश पर्वतपर ले गई और वहाँ स्थापित करके वापिस चली गई । उसने वहाँ सब जिनालयों की पूजा और स्तुति की। तत्पश्चात् वह एक जिनालय में बैठी ही थी कि इतनेमें वहाँ पद्मावती आई । उक्त देवी जिनेन्द्रकी वन्दना करके जैसे ही वहाँ से निकली वैसे ही कन्याको देखकर पूछती है कि तुम कौन हो । वह जब तक अपने वृत्तान्तको कहती है तब तक सब देव वहाँ जा पहुँचे । उनको देखकर कन्याने यक्षीसे पूछा कि हे देवी! ये देव किस लिए आये हैं । यक्षीने कहा कि आज भाद्रपद शुक्ला पंचमी - का दिन है । इसमें पुष्पाञ्जलि व्रतका विधान है। उसे करनेके लिए वे देव यहाँ आये हैं । कन्याने
१. शनिद्रावरवशो । २. क मंन्त्रवादं पठते । ३. फ स्त्रियादिकं च, श वस्वादिकं च । ४. प प्रत्योः 'यतो मे गुरुरा
भुजुंतं । ५. पफ पुत्रीं । ६. श भावनाया । ७. रु तत्रास्थिता । ८. अतोऽग्रे प श
देशो' इत्यधिकः पाठोऽस्ति ।
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