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________________ : ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २ एव । भरतो महाबलिनं पौदनेशं कृत्वायोध्यायामष्टादशकोटिवाजिभिः चतुरशीतिलक्षमातङ्गैस्तत्प्रमाणै रथैः चतुरशीतिकोटिपदातिभिः द्वात्रिंशत्सहस्र मुकुटवद्धैस्तत्प्रमाणाङ्गरक्षक- यक्षनायकैः आर्यखण्डस्थभूभुजां पुत्र्यो द्वात्रिंशत्सहस्रास्तत्प्रमाणा विद्याधरराजपुत्र्यः तत्प्रमाणा म्लेच्छराजसुता इति पण्णवतिसहस्रान्तः पुरेण सार्धं [ सार्धं ] त्रिकोटिबन्धुभिर्युतस्य सार्धं [ सार्धं ] त्रिकोटयो धेनवः षष्ठ्युत्तरत्रिशतं शरीरवैद्याः कल्याणमित्रामृत गर्भ सुधाकल्प संज्ञकाहारपानक खाद्यस्वाद्यकरा महानसिकास्तत्प्रमाणा सुदर्शनं चक्रं सुनन्दः खड्गो दण्डरत्नं चेमानि त्रीणि तदस्त्रगेहे जातानि । निधयो नव । ते किनामानः किमाकाराः किंप्रमाणाः किंप्रदा इति चेत्, शकटाकृतयश्चतुरक्षाष्टचक्रका प्रयोजनोत्सेधा नवयोजनविस्तारा द्वादशयोजनायामाः प्रत्येकं सहस्रयक्षरक्षितश्चतुर्दशरत्नान्यपि । अभिलषितपुस्तकप्रदः कालनिधिः, स्वर्णादिपञ्चलोहदो महाकालो निधिः व्रीह्यादिधान्यख्याद्यौषधद्रव्यप्रदः सुरभिमाल्यादिदचं पाण्डुकनिधिः, कवचखङ्गादिसकलशस्त्रदो माणवको 'निधिः, भाजनशयनासनवस्तुदो नैसर्पो निधिः, सकलरत्नदः सर्वरत्ननिधिः, सकलवाद्यदः शङ्खनिधिः, समस्तवस्त्रदः पद्मनिधिः, समस्तभूषणदः पिङ्गलनिधिः, २७७ समय केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, जिसके प्रभावसे समवसरणादि विभूति भी उन्हें प्राप्त हो गई । भरतने महाबलीको पोदनपुरका राजा बनाया । तत्पश्चात् वह अयोध्या में सुखपूर्वक स्थित हुआ । उसके पास चक्रवर्तीकी विभूतिमें अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रथ, चौरासी करोड़ पदाति, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा, उतने ही अंगरक्षक श्रेष्ठ यक्ष; आर्यखण्ड में स्थित राजाओं की पुत्रियाँ बत्तीस हजार, इतनी ही विद्याधर राजाओं की पुत्रियाँ व उतनी ही म्लेच्छ राजाओं की पुत्रियाँ, इस प्रकार समस्त छयानचे हजार अन्तःपुरकी स्त्रियाँ; साढ़े तीन करोड़ कुटुम्बी जन, साढ़े तीन करोड़ गायें, तीन सौ साठ शरीरशास्त्रके जानकर वैद्य; तथा कल्याणमित्र, अमृतगर्भ और अमृतकल्प नामके आहार, पानक, खाद्य व स्वाद्य इन भोजनविशेषोंको तैयार करनेवाले उतने ही रसोइये थे । उसके चौदह रत्नोंमेंसे सुदर्शन चक्र, सुनन्द खड्ग और दण्ड रत्न ये तीन रत्न उसकी आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे। जिनका आकार गाड़ी के समान होता है, जिनके चार अक्ष ( धुरी) व आठ पहिये होते हैं; जो आठ योजन ऊँची, नौ योजन विस्तृत व बारह योजन आयत होती हैं, तथा जो प्रत्येक एक हजार यक्षोंसे रक्षित होती हैं; ऐसी नौ निधियाँ थीं । इन नौ निधियों के साथ उसके चौदह रत्न भी थे । उक्त नौ निधियोंमें, ° कालनिधि अभिलषित पुस्तकोंको देनेवाली, २ महाकालनिधि सुवर्ण आदि पाँच प्रकारके लोह ( धातुओं) को देनेवाली, ३ पाण्डुकनिधि ब्रीहि आदि धान्यविशेषों, सोंठ आदि औषध द्रव्यों तथा सुगन्धित माला आदिको देनेवाली, ४ माणवकनिधि कवच एवं खड्ग आदि समस्त शस्त्रोंको देनेवाली, ५ नैसर्पनिधि भाजन, शय्या एवं आसनरूप वस्तुओं को देनेवाली, ६ सर्वरत्ननिधि समस्त रत्नों को देनेवाली, ७ शंखनिधि समस्त बाजों को देनेवाली, पद्मनिधि समस्त वस्त्रों को देनेवाली और ९ पिंगलनिधि समस्त आभूषणों को देनेवाली थी। इन निधियोंके समान जिन १. ब - प्रतिपाठोऽयम् । श षष्टयुत्तरशतं । २. ज कल्याणामित्ता ंश कल्याणनाम्निता । ३. श स्वादकरा । ४. प तदत्र गेहे । ५. ज किमाकार: किप्रमाणः । ६. श यक्षरता । ७. ज सुरभिमाल्यादिदो व ब 'सुरभि' इत्यादिपाठो नास्ति । ८. ज श मांणको । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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