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६. दानफलम् २
खादितुं लग्नाः । वनदेवताभिर्निवारितास्ततो भौतिकादिनानावेषधारिणो जज्ञिरे ।
ततः कियद्दिनेषु कच्छ महाकच्छात्मजो नमि-विनमी तत्पादयोर्लग्नौ ' नाथावाभ्यां कमपि देशं देहि' इति । तदा तदुपसर्गनिवारणार्थमागत्य धरणेन्द्रस्तयोर्वभाण - -नाथो युवाभ्यां विजयार्ध राज्यं दापितवान् श्रागच्छतं मया तत्रेति तत्र नीत्वा तौ राजानौ चकार इति । स्वामी प्रतिज्ञावसाने हस्तावुद्धृत्य यं नगरादिकं चर्यार्थ प्रविशति तत्पतयः कन्यादिकं ददति स्म, न च विधिना ग्रासम् । भरतराजोऽपि गत्वा तत्पादयोः पपात वभाण च - स्वामिन्, किमित्येवं तिष्ठसि स्वपुरमागत्य पूर्ववद्राज्यं कुरु । तदा तन्मौनमालोक्य भरतोऽपि विषण्णचित्तः स्वपुरमितः । नाथः पण्मासालाभे सति वैशाखशुक्ल द्वितीयायाम् अपराह्न हस्तिनापुरवहिरुद्याने प्रतिमायोगेन स्थितः । तद्रात्रिपश्चिमयामे सोमप्रभभ्राता श्रेयान् कल्पतरुस्वगृहप्रवेशादिनाना शुभ स्वप्नानपश्यत् । सोमप्रभाय निरूपिते सोऽवोचत् कोऽपि महात्मा ते गृह प्रविश्यति । ततस्तृतीयायां मध्याह्न जनाश्चर्यमुत्पादयन् चर्यार्थ राजभवन संमुखमागच्छन्तं विलोक्य सिद्धार्थद्वारपालकः सोमप्रभायाकथयत् 'स्वामी आगच्छन्नास्ते इति श्रुत्वा सोमप्रभश्रेयांसौ संमुखमागतौ । तं वीक्ष्य पूर्वभवस्मरणवशेन तन्मार्ग परिज्ञाय श्रेयान् स्थापयामास ।
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और भूखसे पीड़ित होकर जल पीने और फल आदिक खानेमें संलग्न हो गये । यह देखकर वनदेवताओं ने उन्हें दिगम्बर वेषमें स्थित रहकर उसके प्रतिकूल आचरण ( फलादिभक्षण ) करने से रोक दिया । तब वे भौतिक आदि अनेक वेषोंके धारक हो गये ।
तत्पश्चात् कुछ दिनों में कच्छ और महाकच्छके पुत्र नमि और विनमिने आकर भगवान् के चरणोंमें प्रणाम करते हुए प्रार्थना की कि हे स्वामिन्! हम दोनों को कोई भी देश प्रदान कीजिए । तब उनके इस उपसर्गको दूर करनेके लिए वहाँ घरणेन्द्र आया । उसने उन दोनों कुमारोंसे कहा कि स्वामीने तुम दोनोंके लिए विजयार्धका राज्य दिया है, तुम मेरे साथ वहाँ चलो । इस प्रकार उन दोनोंको वहाँ ले जाकर उसने उन्हें राजा बना दिया । प्रतिज्ञा के अन्तमें भगवान् हाथों को उठाकर आहारके लिए जिस नगर आदि में प्रविष्ट होते उनके अधिपति उन्हें कन्या आदि देने को उद्यत होते, परन्तु विधिपूर्वक भोजन कोई नहीं देता था । राजा भरत भी गया और उनके चरणों में गिरकर बोला कि हे स्वामिन् ! आप इस प्रकार से क्यों स्थित हैं, अपने नगर में आकर पहिलेके समान राज्य कीजिए | परन्तु जब भगवान् ने कुछ उत्तर नहीं दिया तब उनके मौनको देखकर उसे बहुत खेद हुआ । अन्तमें वह अपने नगर में वापिस चला गया । इस प्रकार वे भगवान् आहार के लिए छह महिने तक घूमे । परन्तु उन्हें विधिपूर्वक वह प्राप्त नहीं हुआ । तत्पश्चात् वे वैशाख शुक्ला द्वितीया के दिन अपराह्न काल में हस्तिनापुर नगर के बाहरी उद्यानमें प्रतिमायोग से स्थित हुए । उसी दिन रात्रिके पिछले प्रहरमें सोमप्रभ राजाके भाई श्रेयांसने अपने घर में कल्पवृक्ष के प्रवेश आदि रूप अनेक शुभ स्वप्न देखे । तत्पश्चात् उसने इन स्वप्नोंका वृत्तान्त सोमप्रभसे कहा । उत्तर में सोमप्रभ ने कहा कि तुम्हारे घरमें कोई महात्मा प्रवेश करेगा । पश्चात् तृतीया के दिन मध्याह्न कालमें वे भगवान् लोगोंको आश्चर्यान्वित करते हुए आहार के लिए राजभवन के सम्मुख आये । उन्हें देखकर सिद्धार्थ द्वारपालने सोमप्रभसे कहा कि हे राजन् ! ऋषभदेव स्वामी राजभवन की ओर आ रहे हैं । यह सुनकर सोमप्रभ और श्रेयांस दोनों भाई भगवान् के संमुख आये। उन्हें देखते ही श्रेयांसको
१. श आगच्छं । २. फ अपराहे । ३. फ हस्तिनागपुर । ४. व प्रवेक्ष्यति । ५. श संमुखमास्ते ।
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