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पुण्यात्रकथाकोशम्
तं राज्ये निधायाशोको दीक्षितः । संप्रति चन्द्रगुप्तो राज्यं कुर्वन् तस्थौ ।
एकदा तदुद्यानं कश्चिदवधिबोधमुनिरागतो वनपालात्तदागतिं ज्ञात्वा संप्रति- चन्द्रगुप्तो वन्दितुं ययौ । वन्दित्वोपविश्य धर्मश्रुतेरनन्तरं स्वातीतभवान् पृष्टवान् । मुनिः कथयत्यत्रैवार्य खण्डेऽवन्तीषु वैदेशेनगरे राजा जयवर्मा राशी धारिणी । तन्नगरनिकटस्थपलासग्रामे वैश्यदेवि पृथिव्योः पुत्रो नन्दिमित्रः पुण्यहीनो बह्नाशीति पितृभ्यां निर्द्धाटितो "वैदेशपुरमियाय । तत्र नगरादद्बहिर्वटवृक्षतले उपविष्टस्तत्र तस्मात् पूर्व काष्ठकूटाख्यः काष्ठविक्रयोपजीवी काष्ठभारमुत्तार्य विश्रमन् तस्थौ । तं विलोक्य नन्दिमित्रोऽबूत एतद्भा
चतुर्गुणं भारं प्रतिदिनमानयामि, मे भोजनं दास्यसि । तेनोक्तं दास्यामि, ततस्तं काष्ठभारं " तन्मस्तके निधाय गृहे जगाम । स्वभार्या जयघण्टां शिशिष्येऽस्य । कदाचिदप्युदरपूरं ग्रासं मा देहीति । तस्य रखायामनागोदनादिकं (?) स्तोकं दत्वातिस्थूलकाष्ठभारानानाययति । काष्ठकूटस्तान् विक्रोय द्रव्यं चिचाय, स्वयं काष्ठानि नानयति, तेनैवानाययति' । एकदा पर्वणि जयघण्टा एतत्प्रसादेन में श्रीर्जाताऽस्य कदाचिदपि परिपूर्णो ग्रासो न दत्तो थे भुक्तामिति पायसघृतशर्करादिकं तस्य यथेष्टमदत्त तांबूलं च । ततोऽसौ दिया । उसके संप्रति चन्द्रगुप्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। उसको राज्य देकर अशोकने दीक्षा ले
। संप्रति चन्द्रगुप्त राज्य करने लगा ।
[ ५-५, ३८ :
एक समय वहाँ उद्यानमें कोई अवधिज्ञानी मुनि आये । वनपालसे उनके आगमनको जानकर संप्रति चन्द्रगुप्त उनकी वन्दना के लिए गया । बन्दना करके उसने धर्मश्रवण किया । तत्पश्चात् उसने उनसे अपने पूर्व भवों को पूछा। मुनि बोले- इसी आर्यखण्ड के भीतर अवन्ति देश में वैदिश (विदिशा ?) नगर में राजा जयवर्मा राज्य करता था। रानीका नाम धारिणी था । इसी नगर के पास में एक पलासकूट नामका गाँव है । वहाँ एक देविल नामका वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम पृथिवी था । इनके एक नन्दिमित्र नामका पुत्र था जो पुण्यहीन था । वह मात्रा में बहुत अधिक भोजन किया करता था । इसलिए माता-पिता ने उसे घर से निकाल दिया था । तब वह वैदिशपुर गया । वहाँ जाकर वह नगरके बाहर एक वट वृक्ष के नीचे बैठ गया । उसके पहुँचनेके पूर्वमें वहाँ एक काष्ठकूट नामका लकड़हारा लकड़ियोंके बोझको उतारकर विश्राम कर रहा था । उसको देखकर नन्दिमित्र बोला कि यदि तुम मुझे प्रतिदिन भोजन दिया करोगे तो मैं इससे चौगुना लकड़ियोंका बोझ लाया करूँगा । काष्टकूटने इस बातको स्वीकार कर लिया, तदनुसार वह उस लकड़ियोंके बोझको नन्दिमित्र के सिरपर रखकर घरको गया । उसने अपनी स्त्री जयघंटाको सीख दी कि तुम इसको कभी भी पूरा पेट भोजन नहीं देना । तदनुसार उसकी स्त्री उसे थोड़ा भोजन देने लगी । इस प्रकार काष्ठकूट भारी लकड़ियोंके गट्टोंको मँगाने और उन लकड़ियोंको बेचकर धनसंचय करने लगा। अब वह स्वयं लकड़ियों को न लाकर उसीसे मँगाया करता था । एक बार त्योहारके समय जयघण्टा ने सोचा कि इसके प्रसादसे मुझे सम्पत्ति प्राप्त हुई है । परन्तु मैंने इसे कभी भी पूर्ण भोजन नहीं दिया । आज इसे इच्छानुसार भोजन कराना चाहिए । यह सोचकर उसने उस दिन नन्दिमित्रके लिए उसकी इच्छानुसार खीर, घी और शक्कर आदि देकर
१. फ वंदेश' ब वैदेस श वैदिश । २. ब पलालकूट । ३. व वैदेश श वैदिश ं । ४. श ' भारं ' नास्ति । ५ ब ततः काष्ठभारं । ६. ज प श शिशिष्ये व सतिक्षे । ७ ब रत्रायामारनालोदनादिकं । ८. श काष्ठकूटस्थात्तान् । ९. ज तेनैत्रानययति ब तेनैवनययति ।
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