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२०२ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ५-४, ३७: महाविभूत्या विवाहोऽभूत् ।
कतिपयदिनैरशोकस्तया स्वपुरमियाय । पिता संमुखमाययो। तं नत्वा विभूत्या पुरं विवेश। मात्रा पुण्याङ्गताभिश्च निक्षिप्तशेषाक्षतादीन स्वीकृत्य सहागतरोहिणीभ्रात्रे श्रीपालाय स्वभगिनीं प्रियङ्गसुन्दरीं दत्त्वा तं स्वपुरं प्रस्थाप्याशोको युवराजः सुखेन तस्थौ । एकदा वीतशोको राजातिशुभ्रमभ्रं विलीनं विलोक्य वैराग्यं जगाम । अशोकाय राज्यं दत्त्वा सहस्रराजपुत्रैर्यमधरस्य पार्श्व दीक्षितः, मुक्तिं च ययौ । इतो राज्यं 'कुर्वतोऽशोकरोहिण्योः पुत्रा वीतशोक-जितशोक-नएशोक विगतशोक-धनपाल-स्थिरपाल-गुणपालाश्चेति सप्त, पुत्र्यो वसुंधरी-अशोकवती-लक्ष्मीमती-सुप्रभाश्चेति चतस्रः, ततो लोकपालाख्यो नन्दन इति द्वादशापत्यानां माता बभूव रोहिणी ।
एकदाशोकरोहिण्यौ स्वभवनस्योपरिमभूमौ एकासने चोपविश्य दिशमवलोकयन्तौ तस्थतुः। तदा बहवः स्त्रियः पुरुषाश्च जठराताडनपूर्वमाक्रन्दनं कुर्वन्तो राजमार्गेण जग्मुः । तथाविधान् तान् रोहिणी लुलोकेऽपृच्छच्च स्वपण्डितां वासवदत्तां किमिदमपूर्वनाटकमिति । तदनु सा रुरोष ववाद च हे पुत्रि, रूपादिगर्वण त्वमेवं वदसि । रोहिण्योक्तं मातः किमिति कुप्यसि, ममेदं किमुपदिष्टं त्वयाहं व्यस्मरमिति कुप्यसि। तयोक्तं पुत्रि, सर्वथा त्वमिदं
महाविभूतिके साथ विवाह सम्पन्न हो गया।
अशोक कुछ दिन वहींपर रहा। तत्पश्चात् वह रोहिणीके साथ अपने नगरको वापिस गया। उस समय पिता उसको लेनेके लिए सम्मुख आया। तब अशोक पिताको प्रणाम करके विभूतिके साथ पुरके भीतर प्रविष्ट हुआ। उस समय माता एवं अन्य पवित्र ( सौभाग्यशालिनी) स्त्रियोंके द्वारा फेंके गये शेषाक्षतोंको अशोकने सहर्ष स्वीकार किया। फिर उसने साथमें आये हुए रोहिणीके भाई श्रीपालके लिए अपनी बहिन प्रियंगुसुन्दरीको देकर उसे अपने नगरको वापिस भेज दिया। इस प्रकार वह अशोक युवराज सुखपूर्वक स्थित हुआ। एक समय अतिशय धवल मेघको नष्ट होता हुआ देखकर वीतशोक राजाके लिए वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उसने अशोकके लिए राज्य देते हुए एक हजार राजपुत्रों के साथ यमधर मुनिके पासमें जाकर दीक्षा ले ली । अन्तमें वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ। इधर राज्य करते हुए अशोक और रोहिणीके वीतशोक, जितशोक, नष्टशोक, विगतशोक, धनपाल, स्थिरपाल और गुणपाल ये सात पुत्र तथा वसुंधरी, अशोकवती, लक्ष्मीमती और सुप्रभा ये चार पुत्रियाँ हुई। अन्तमें उनके एक लोकपाल नामका अन्य पुत्र हुआ । इस प्रकार रोहिणी बारह सन्तानोंकी माता हुई ।
एक समय अशोक और रोहिणी दोनों अपने भवनके ऊपर एक आसनपर बैठे हुए दिशाओंका अवलोकन कर रहे थे। उस समय बहुत-सी स्त्रियाँ और पुरुष अपने उदरको ताड़ित करके रोते हुए राजमार्गसे जा रहे थे। उन सबको वैसी अवस्थामें देखकर रोहिणीने वासवदत्ता नामकी अपनी चतुर धायसे पूछा कि यह कौन-सा अपूर्व नाटक है ? यह सुनकर धायको क्रोध आ गया। वह बोली कि हे पुत्री ! तू रूप आदिके अभिमानसे इस प्रकार बोल रही है। इसपर रोहिणी बोली कि हे माता ! क्रोध क्यों करती हो ? क्या तुमने मुझे इसका उपदेश दिया है और मैं भूल गई हूँ, इसलिए क्रोध करती हो ? तब उस धायने पूछा कि हे पुत्री ! क्या तू इसे सर्वथा
१. ब कुवातोरशोक । २. ब अशोकमती । ३. ब इति प्रसिद्धो द्वादशपत्यानां । ४. श एकरोहिण्यौ । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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