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:५-२, ३५] ५. उपवासफलम् २
१९५ मुनिरवदत् तत्प्राभृतं तेन वेश्यया भक्षितम्। भयान्नागच्छति । तथापि पञ्चरात्रे आगमिष्यति । तदा तमागतं सवनितं बन्दिगृहे निक्षिप्तवान् राजा। तत्कारागारावासं विलोक्य सुवङ्कः सुदर्शनमुनिपार्श्वे दीक्षितः, केशिनी सुव्रतार्जिकान्ते । आयुरन्ते सुवङ्कः सौधर्मेन्दुप्रभनाम देवोऽजनि । केशिनी तत्रैव रविप्रभदेवो जातः । अत्रैव विजया) दक्षिणश्रेण्यामम्बरतिलकपुरेशपवनवेगविद्युद्वेगयोरिन्दुप्रभः सौधर्मादागत्य मनोवेगनामा सुतो भूत् । प्रवृद्धः सन्नेकदा सिद्धकूटं गतः । तत्र जिनवन्दनानन्तरं चारणं नत्वा धर्मश्रुतेरनन्तरं स्वातीतभवान् पृष्टवान् । मुनिः कथितप्रकारेणैव कथितवान् । पुनः सोऽप्राक्षीन्मम जननीचरः रविप्रभः वास्ते इति । सोऽवोचद्भविष्यानुरूपादेवीगर्भे तिष्ठति, सापि हारपुरचन्द्रप्रभजिनालये दर्शनवाञ्छ्या वर्तते इति श्रुत्वा सोऽयं मनोवेगो गर्भस्थमातृचरजीवव्यामोहेनात्रानीतवानिति निरूप्य मुनिर्गगनेन गतो भविष्यदत्तादयः स्वपुरमाजग्मुः । भविष्यानुरूपा क्रमेण सुप्रभकनकप्रभसोमप्रभसूर्यप्रभाख्यान पुत्रान् लेभे । सुरूपा धरणिपालं सुतं" धारिणी सुतां चालभत । सुप्रभादीन शिक्षयन् भविष्यदत्तः संतिष्ठते स्म ।
अग्निमित्रके वापिस न आनेका कारण पूछा। मुनिने उत्तरमें कहा कि उसने उस उपहारको वेश्याके साथ खा डाला है। इसीलिए वह भयके कारण वापिस नहीं आया है। फिर भी अब वह पाँच दिनमें यहाँ आ जावेगा। तत्पश्चात् उसके वापिस आनेपर राजाने उसे और उसकी पत्नीको भी कारागारमें बन्द कर दिया। उन्हें कारागारमें स्थित देखकर सुवंकने सुदर्शन मुनिके पास दीक्षा ग्रहण कर ली तथा सुव्रता आर्यिकाके समीपमें केशिनीने भी दीक्षा ले ली। सुर्वक आयुके अन्तमें शरीरको छोड़कर सौधर्म स्वर्गमें इन्दुप्रभ नामका देव हुआ और वह केशिनी उसी स्वर्ग में रविप्रभ नामका देव हुई। इसी विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें एक अम्बरतिलक नामका नगर है। उसमें पवनवेग नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम विद्युद्वेगा था। वह इन्दुप्रभ देव सौधर्म स्वर्गसे च्युत होकर इनके मनोवेग नामका पुत्र हुआ। वह वृद्धिंगत होकर एक समय सिद्ध कूटके ऊपर गया था। वहाँ जाकर उसने जिन भगवान्की वन्दना की। तत्पश्चात् उसने चारण मुनिको नमस्कार करके उनसे धर्मश्रवण किया । अन्तमें उसने उनसे अपने पिछले भवोंके सम्बन्धमें पूछा । जैसा कि पूर्व में निरूपण किया जा चुका है तदनुसार ही मुनिने उसके पूर्व भवोंका निरूपण कर दिया। फिर उसने उनसे पूछा मेरी माताका जीव जो रविप्रभ देव हुआ था वह इस समय कहाँपर है ? मुनि बोले कि वह इस समय भविष्यानुरूपा रानीके गर्भमें स्थित है । उस भविष्यानुरूपाके इस समय हरिपुरस्थ चन्द्रप्रभ जिनालयके दर्शन करने की इच्छा है । यह सुनकर वह यह मनोवेग विद्याधर गर्भ में स्थित अपने माताके जीवके मोहसे भविष्यानुरूपाको यहाँ ले आया है। इस प्रकार निरूपण करके वे चारण मुनि आकाशमार्गसे चले गये। इधर भविष्यदत्त आदि सब अपने नगरमें आ गये। भविप्यानुरूपाके क्रमशः सुप्रभ, कनकप्रभ, सोमप्रभ
और सूर्यप्रभ नामके पुत्र उत्पन्न हुए। दूसरी पत्नी सुरूपाके धरणिपाल नामका पुत्र और धारिणी नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । तब भविष्यदत्त सुप्रभ आदि उन पुत्रोंको शिक्षा देते हुए स्थित था ।
१. ज फ वेश्यया सह भक्षितं । २. ज सौधर्मेद्रेःप्रभ। ब सौधर्मेन्दुप्रभा । ३. प देवीगृहे । ४. ज सोपि । ५. ज प फ श दर्शन वांछां । ६. ज सूर्यप्रभाद्याललेभे प सूर्यप्रभाष्यापुत्रान्ल्लेभे । ७. श सुरूपा सुरूपं
धरणीपालसुतं ज प फ सुरूपा धरणिपालसुतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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