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५. उपवासफलम् १
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एकदा तत्पुरोद्यानं पिहितास्त्रवमुनिराययौ । नागकुमारो मामेन समं वन्दितुं जगाम । वन्दित्वा धर्मश्रुतेरनन्तरं पृष्टवान् लक्ष्मीमत्या उपरि स्वस्य मोहहेतुम् । मुनिराहात्रैव द्वोपे अवन्तिविषये उज्जयिन्यां राजा कनकप्रभो राशी' कनकप्रभा पुत्रः सुवर्णनाभंः दानादिकृत्वा समाधिना महाशुक्रे महर्द्धिको देवोऽभूत् । तस्मादागत्यैरावते श्रार्यखण्डे वीतशोकपुरे राजा महेन्द्रविक्रमः । तत्र वैश्यो धनदत्तः प्रिया धनश्री पुत्रो नागदत्तस्तत्रापरो वैश्यो वसुदत्तो रामा वसुमती सुता नागवसुः। सा नागदत्तेन परिणीता । एकदा तत्पुरोधाने मुनिर्गुप्ताचार्यः" समागतः । तं वन्दितु राजादयो जग्मुः । वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य नागदत्तः पञ्चम्युपवासं । जग्राह । तेन रात्रौ पीडितः पित्रादिभिरनेक प्रकारैरुपवासस्त्याजितःन तत्याज । ततो रात्रिपश्चिमयामे शरीरं विहाय समाधिना सौधर्मे सूर्यप्रभविमानेऽमरोऽभूत्, भवप्रत्ययबोधेन सर्व विबुध्यागत्य च बन्धुजनादिकं संबुबुधे । ततः स्वर्लोक मियाय । नागदत्त वधूस्तपो बभार । तस्यैव देवस्य देवी भविष्यामीति सा निदानात्तद्देवस्य देवी जज्ञे । ततः आगत्य स देवस्त्वं जातोऽसि सा देवी लक्ष्मीमती जातेति । श्रुत्वा पञ्चम्युपवासविधिं पप्रच्छ ।
एक समय उस नगरके उद्यानमें पिहितास्रव मुनि आये । नागकुमार मामाके साथ उनकी वन्दना के लिए गया । वन्दनाके पश्चात् उसने उनसे धर्मश्रवण किया । फिर उसने उनसे पूछा कि लक्ष्मीमतीके ऊपर मेरे अतिशय प्रेमका कारण क्या है ? उत्तर में वे इस प्रकार बोले- इसी द्वीपके भीतर अवन्ति देशमें उज्जयिनी पुरी है । वहाँ कनकप्रभ नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम कनकप्रभा था । उनके एक सुवर्णनाभ नामका पुत्र था । वह दानादि धर्म - कार्योंको करके समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर महाशुक्र स्वर्गमें महर्धिक देव हुआ । इसी जम्बू द्वीप सम्बन्धी ऐरावत क्षेत्रके आर्यखण्ड में एक वीतशोक नामका नगर है । वहाँ महेन्द्रविक्रम राजा राज्य करता था । इसी नगर में एक धनदत्त नामका वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम धनश्री था । उपर्युक्त देव महाशुक्र स्वर्गसे च्युत होकर इन दोनोंके नागदत्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । उसी पुरमें एक वसुदत्त नामका दूसरा भी वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम वसुमती था । इनके एक नागवसु नामकी पुत्री थी । उसके साथ नागदत्तने विवाह किया था। एक बार उस नगर उद्यानमें गुप्ताचार्य नामके मुनि आये । राजा आदि उनकी वन्दनाके लिए गये। उनकी वन्दना के पश्चात् धर्मश्रवण करके नागदत्तने उनसे पञ्चमीके उपवासको ग्रहण किया । इससे उसको रात्रि में कष्ट हुआ । तब पिता आदि कुटुम्बी जनोंने अनेक प्रकारसे उसके उपवासको छुड़ानेका प्रयत्न किया । किन्तु उसने उसे नहीं छोड़ा । तत्पश्चात् रात्रिके पिछले पहर में समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर वह सौधर्म स्वर्गके अन्तर्गत सूर्यप्रभ विमानमें देव उत्पन्न हुआ। फिर वह भवप्रत्यय अवधिज्ञानसे उस सब वृतान्तको जानकर वहाँ आया । तब उसने शोकसन्तप्त उन बन्धुजनों को संबोधित किया। तत्पश्चात् वह स्वर्गको वापिस चला गया । नागदत्तकी पत्नी नागवसूने भी दीक्षा लेकर उसीकी पत्नी होने का निदान किया था । तदनुसार वह उस देवकी देवी हुई । वहाँ से च्युत होकर वह देव तुम और वह देवी लक्ष्मीमती हुई है। इस प्रकार अपने पूर्व भवके वृत्तान्तको सुनकर नागकुमारने उन मुनिराजसे पञ्चमीके उपवासकी विधिको पूछा । उसकी वि मुनिराजने इस प्रकार बतलायी
१. ब भार्या । २. श सुवर्णलाभः । २फ रामा नागमती श रामामती । नागवसुः । ५. ब 'द्यानं मुनिगुप्ताचार्य: । ६. प श स बुबुधे । ७. ब नागवसूस्तपो ।
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४. फ नागवसु श
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