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१६८ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ५-१, ३४ : ग्रहेण चिक्रीड। पितुर्भाण्डागारे जिते देशमाधि कुर्वतः पादयोः पपात देव पूर्यत इति । तदा मातुर्द्रव्यं मातुः समान्यदन्येभ्यः समर्पितवान् कुमारः । राजा परमानन्देन स्वपुरादहिरपरं पुरं विधाय तत्र तं व्यवस्थापयामास । सोऽपि सुखेन तस्थौ।
अत्रापरं कथान्तरम्- अत्रैव सूरसेनदेशे उत्तरमथुरापुर्या राजा जयवर्मा जाया जयावती सुतौ व्यालमहाव्यालौ कोटीभटो। तत्र व्यालस्त्रिलोचनः। एकदा तत्पुरोद्याने यमधरमुनिस्तस्थौ । वनपालकाद्विबुध्य राजा वन्दितुं ययौ । वन्दित्वा तं पृच्छति स्म मत्सुतौ स्वतन्त्री राज्यं करिष्यतः कमपि सेवित्वा वा। साधरुवाच यर्शनेन व्यालभालस्थं चक्षुर्याति तं सेवित्वायं राज्यं करिष्यति । या कन्या महाव्यालं नेच्छती यस्य प्रिया स्यात्तं सेवित्वायमपि राज्यं करिष्यतीति । श्रुत्वा जयवर्मा एवंविधावपि मत्सुतौ परसेवको स्यातामिति ताभ्यां राज्यं वितीर्य वैराग्येण दीक्षितः । तावपि मन्त्रितनयं दुष्टवाक्यं राज्ये नियुज्य स्वस्वाम्यन्वेषणाय निर्जग्मतुः। पाटलीपुत्रपुरं प्राप्य जनं मोहयन्तावापणे तस्थतः। तत्पतिः श्रीवर्मा रामा श्रीमती दुहिता गणिकासुन्दरी । तत्सखी त्रिपुरा । तया तावालोक्य तद्रूपातिशयं गणिकासुन्दर्याः प्रतिपादितम् । सापि गूढवेषेण निरीक्ष्य महाव्यालस्यात्यासक्ता समस्त कोषको जीत लिया। पश्चात् जब राजा देशको भी दावपर रखने लगा तब उसने पिताके पाँवोंमें गिरकर प्रार्थना की कि हे देव ! अब इसे समाप्त कीजिये । इसके पश्चात् नागकुमारने माताके धनको माताके लिये देकर शेष धनको उसके स्वामियोंके लिये दे दिया। राजाने सन्तुष्ट होकर अपने नगरके बाहर दूसरे नगरका निर्माण कराकर वहाँ नागकुमारको प्रतिष्ठित कर दिया। वह भी वहाँ सुखपूर्वक रहने लगा।
यहाँ दूसरी कथा आती है- यहाँ ही सूरसेन देशके भीतर उत्तर मथुरापुरीमें जयवर्मा नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम जयावती था। इनके व्याल और महाव्याल नामके दो पुत्र थे जो कोटिभट (करोड़ योद्धाओंको पराजित करनेवाले ) थे । इनमें से व्यालके तीन नेत्र थे। एक दिन उक्त नगरके उद्यानमें यमधर नामके मुनि आकर विराजमान हुए। वनपालसे उनके आगमनके समाचारको जानकर राजा उनकी वन्दनाके लिये गया। वन्दनाके पश्चात उसने उनसे पूछा कि मेरे दोनों पुत्र स्वतन्त्र रहकर राज्य करेंगे अथवा किसीके सेवक होकर । मुनि बोले-जिस पुरुषको देखकर व्यालके मस्तकपर स्थित नेत्र नष्ट हो जावेगा उसकी सेवा करके वह राज्य करेगा। और जो कन्या व्यालकी इच्छा न करके जिस अन्य पुरुषकी प्रियतमा बनेगी उसकी सेवा करके यह महाव्याल भी राज्य करेगा । यह सुनकर जयवर्माने विचार किया कि देखो ये मेरे दोनों पुत्र कोटिभट हो करके भी दूसरोंके सेवक बनेंगे। यह विचार करते हुए उसका हृदय वैराग्यसे परिपूर्ण हो गया । तब उसने उन दोनों पुत्रोंको राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली । उधर वे दोनों पुत्र भी मन्त्रीके पुत्र दुष्टवाक्यको राज्यकार्यमें नियुक्त करके अपने-अपने स्वामीको खोजनेके लिये निकल पड़े । वे दोनों पाटलीपुत्रमें पहुँचकर लोगोंको मुग्ध करते हुए बाजारमें ठहर गये । पाटलीपुत्रमें उस समय श्रीवर्मा राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम श्रीमती था । इनके गणिकासुन्दरी नामकी एक पुत्री थी। उसकी त्रिपुरा नामकी एक सखी थी। उसने उन दोनोंको देखकर उनकी सुन्दरताकी प्रशंसा गणिकासुन्दरीसे की। तब वह भी गुप्त रूपसे महा
१. २. प जिते देशमावि फ जिते मर्यादादेशमाधि श जिते मर्यादाशमाधि । २. फ जैनमोहया ताश
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