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: ४-७, ३२ ]
४. शीलफलम् ७
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प्रेषिता । भोजनानन्तरं जिनगृहं प्रविश्य स्थिताः । भरतदूतवेषधारिणा लक्ष्मणेन महायुद्धे सिंहोदरी बद्ध्वा आनीय रामाय समर्पितः वज्रकर्णेन रामलक्ष्मीधरौ प्रणम्य मोचितस्ततो रामेणोभौ 'समप्रतिपत्त्या स्थापितौ । बहुपरिग्रहोऽपि वज्रकर्णो बलाच्युतपूज्योऽजन्यपरः किं न स्यादिति ॥ ६ ॥
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किं वर्ण्यते शीलफलं मया यनीलीति नाम्ना वणिजो हि पुत्री । शीलात्पूजां लभते स्म यक्ष्याः शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥७॥ अस्य कथा – अत्रैवार्यखण्डे लाटदेशे भृगुकच्छपत्तने राजा वसुपालः वणिग्जिनदत्तो भार्या जिनदत्ता, पुत्री नीली अतिशयरूपवती । तत्रैवापरः श्रेष्ठी समुद्रदत्तो भार्या सागरदत्ता पुत्रः सागरदत्तः । पकदा महापूजायां वसतौ कायोत्सर्गे स्थितां सर्वाभरणभूषितां नीलीमालोक्य सागरदत्तेनोक्तं किमेषा देवता काचिदेतदाकर्ण्य तम्मित्रेण प्रियदत्तेन भणितम् - जिनदत्तश्रेष्ठिन इयं नीली पुत्री । ततस्तद्रूपावलोकनातीवासको भूत्वा कथमियं प्राप्यत इति तत्परिणयनचिन्तया दुर्बलो जातः । समुद्रदत्तेन चैकदाकर्ण्य भणितः पुत्रो हे जैनं मुक्त्वा नान्यस्य जिनदत्तो ददातीमां पुत्रिकां परिणेतुम् । ततस्तौ कपटेन श्रावकौ पहिले देखा है । इससे उसने उनके पास भोजन सामग्री भेजी । भोजनके पश्चात् वे जिनभवन के भीतर प्रविष्ट होकर स्थित हो गये । तत्पश्चात् भरतके दूतका वेष धारण करके लक्ष्मण युद्धमें सिंहोदरको बाँध लिया और लाकर रामको समर्पित कर दिया । तब वज्रकर्णने राम और लक्ष्मणको नमस्कार करके सिंहोदरको बन्धन से मुक्त कराया । फिर रामने उन दोनोंको समान आदर के साथ प्रतिष्ठित कराया । इस प्रकार बहुत परिग्रहसे संयुक्त वह वज्रकर्ण जब बलदेव (राम) और नारायण ( लक्ष्मण ) के द्वारा पूज्य हुआ तब दूसरा क्या न होगा ? ॥ ६ ॥
पुत्र,
जिस शीलके प्रभावसे नीली नामकी वैश्यपुत्री यक्षीसे उत्तम पूजाको प्राप्त हुई है उस शीलके फलका मैं क्या वर्णन कर सकता हूँ ? अर्थात् नहीं कर सकता हूँ । इसीलिये मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥ ६ ॥
इसकी कथा इस प्रकार है - इसी आर्यखण्डके भीतर लाट देश में भृगुकच्छ नामका नगर है । उसमें वसुपाल नामका राजा राज्य करता था । उसी नगर में एक जिनदत्त नामका वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम जिनदत्ता था । इनके नीली नामकी अतिशय रूपवती पुत्री थी। वहीं पर समुद्रदत्त नामका एक दूसरा भी सेठ रहता था । उसकी पत्नीका नाम सागरदत्ता था । इनके सागरदत्त नामका एक पुत्र था । एक बार सागरदत्तने महापूजा के समय वसति ( जिनभवन) में समस्त आभरणोंसे विभूषित होकर कायोत्सर्गसे स्थित उस नीलीको देखा। उसे देखकर वह बोला कि क्या यह कोई देवता है ? यह सुनकर उसके मित्र प्रियदत्त ने कहा कि यह जिनदत्त सेठकी पुत्री नीली है। उसके सौन्दर्यको देखकर सागरदत्तको उसके विषय में अतिशय आसक्ति हुई । तब वह उसको प्राप्त करने की चिन्तासे उत्तरोत्तर कृश होने लगा । समुद्रदत्तने जब यह सुना तो वह उससे बोला कि हे पुत्र ! जिनदत्त सेठ इस पुत्रीको जैनके सिवाय किसी दूसरेको नहीं दे सकता है । इससे वे दोनों
१. फ 'सम' नास्ति । २. फ यक्षाच्छीलं श यक्षाः शीलं । ३. प श भरुकच्छ । ४. फ ददाति इमां श ददाति मां ।
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