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३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५
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विलोकनानन्तरं मूर्च्छया धरित्र्यां पपात तदनु महाशोकं चकार वध्वो बान्धवोऽपि । राजादीनां महदाश्चर्य जातम्। तदनु सा आत्मानं जनं च संबोध्य महतामनुष्ठानमेतदिति संतुष्टा तत्पूजां संस्कारं च कृत्वा यत्र यशोभद्राचार्योऽस्थात् तत्र सर्वेऽपि समागताः । मुनिं वीक्ष्य सानन्देन मनाक् हसित्वा जिनं समर्च्य वन्दित्वा, तमपि तदनु तं पप्रच्छ सुकुमारस्योपरि मेsतिस्नेहकारणं किमिति । तदा [ मुनिना] प्राक्तनी कथाशेषाच्युतगमनपर्यन्तं कथिता | नागशर्मचरदेवोंऽच्युतादागत्य राजश्रेष्ठीन्द्रदत्तगुणवत्योः सुरेन्द्रदत्तोऽजनि । चन्द्रवाहनस्तस्मादेत्य वैश्य सर्वयशोयशोमत्यो स्तनुजोऽहं यशोभद्रनामा जातः, कौमारे दीक्षितोsafधमन:पर्यययुतो जातः । त्रिवेदीचरस्तस्मादागत्य मम भगिनी त्वं जातासि । पद्मनाभः समेत्य सुकुमारोऽभूत् । सुबलचर प्रारणादागत्य वृषभाङ्कोऽजनि । अतिबलस्ततोऽवतीर्यास्य भूपस्य नन्दनकनकध्वजों "उजनीत्यादि प्रतिपादिते यशोभद्रा चतसृणां गर्भवतीनां सुकुमारप्रियाणां गृहादिकं समर्प्य शेषस्नुषाभिर्बन्धुभिश्चं दीक्षिता । राजा लघुपुत्राय राज्यं वितीर्य कनकध्वजादिबहुराजपुत्रैर्दीक्षां बभार तनार्योऽपि । सर्वेऽपि विशिष्टं तपश्चक्रुः । ततः सुरेन्द्रदत्तयशोभद्रवृषभाङ्ककनकध्वजा मोक्षं जग्मुः । अन्ये सौधर्मप्रभृतिसर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं गताः ।
समस्त जनको बुलाकर राजा आदिकोंके साथ उस स्थानपर गई । वहाँ जब उसने सुकुमार के शेष रहे आधे शरीरको देखा तब वह मूर्छित होकर पृथिवीपर गिर गई । उस समय उसके शोकका पारावार न था । सुकुमारकी पत्नियों और बन्धुजनोंको भी बहुत शोक हुआ । सुकुमारकी सहनशीलता को देखकर राजा आदिकों को बहुत आश्चर्य हुआ । तत्पश्चात् उसने सन्तुष्ट होकर अपने आपको तथा अन्य जनता को भी संबोधित करते हुए कहा कि ऐसा दुर्धर अनुष्ठान महा पुरुषोंके ही सम्भव है । अन्तमें वे सब सुकुमारके शरीरकी पूजा व अग्निसंस्कार करके जिस जिनालय में यशोभद्राचार्य विराजमान थे वहाँ गये । मुनिराजको देखकर यशोभद्राने आनन्दपूर्वक कुछ हँसते हुए प्रथमतः जिनेन्द्रकी पूजा व वंदना की और तत्पश्चात् उन मुनिराजकी भी पूजा व वंदना की । फिर उसने उनसे पूछा कि सुकुमारके ऊपर मेरे अतिशय स्नेहका क्या कारण है ? इस प्रश्नको सुनकर यशोभद्र मुनिने अच्युत स्वर्ग जाने तककी पूर्वकी समस्त कथा कह दी । तत्पश्चात् वे बोले कि जो नागशर्माका जीव जो अच्युत स्वर्गमें देव हुआ था वह वहाँ से च्युत होकर राजसेठ इन्द्रदत्त और गुणवतीका पुत्र सुरेन्द्रदत्त ( यशोभद्राका पति ) ' हुआ है । चन्द्रवाहन राजाका जीव वहाँ से च्युत होकर वैश्य सर्वयश और यशोमतीके मैं यशोभद्र नामक पुत्र हुआ हूँ। मैंने कुमार अवस्थामें ही दीक्षा ले ली थी। मुझे अवधि और मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो चुका है। त्रिवेदीका जीव स्वर्गसे च्युत होकर मेरी बहिन तुम हुई हो । पद्मनाभ देव वहाँ से च्युत होकर सुकुमार हुआ था । राजा सुबलका जीव आरण स्वर्गसे आकर वृषभांक राजा हुआ है । अतिबलका जीव वहाँ से च्युत होकर इस राजाका पुत्र कनकध्वज हुआ है । मुनिराजके द्वारा प्रतिपादित इस सब वृत्तान्तको सुनकर यशोभद्राने सुकुमारकी चार गर्भवती पत्नियोंको घर आदि सँभलाकर शेष सब पुत्रधुओं और बन्धुओं के साथ दीक्षा धारण कर ली । राजाने छोटे पुत्रको राज्य देकर कनकध्वज आदि बहुत-से राजपुत्रों के साथ दीक्षा ले ली । साथ ही उनकी स्त्रियोंने भी दीक्षा ले ली। उन सभीने घोर तपश्चरण किया। उनमेंसे सुरेन्द्रदत्त, यशोभद्र, वृषभांक और कनकध्वज मोक्षको
१. ब मूछिया । २. फ तमपप्रच्छ । ३. ब पर्यंती । ४. श नागशर्माचर ६. फस्नुपादिभिर्वन्धुभिश्च । ७. ब रचादीक्षिता ।
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५. श नंदनकध्वजो ।
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