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११६ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[३-४, २१-२२ मत्पुच्या मया व्रते दत्ते तव किमायातम् । द्विजोऽवदत्ते पुत्रीयम् । मुनिरवोचदोमिति । सा मुनिं प्रणम्य तत्समीपे उपविष्टा । स राज्ञो बभाषे तद्वत्तम् । तदा सर्वजनाश्चर्यमभूत । राजा पोराश्च जैनेतराश्च मुनि वन्दितुं कौतुकं द्रष्टुं च जग्मुः। राजा तौ नत्वा सूर्यमित्रं पृच्छति स्म कस्येयं पुत्रीति । मुनिरब्रवीत् मम पुत्रीयम् । द्विजोऽवोचदमुं नागं पूजयित्वा मद्भार्य येयं लब्धेति सर्वजनसुप्रसिद्धं देव, कथमेतत्पुत्री । मुनिरवत- राजन् , यद्यस्य पुत्री तहनेन व्याकरणादिकं पाठिता। द्विजोऽवोचन्न । तहिं कथं तव पुत्रीयम् । पुनर्द्विजोऽ. वोचत्त्वया कि पाठिता। यतिरुवाचौमिति । ततो राजा जजल्प-हे मुने, तर्हि परीक्षां दापय । दाप्यत एव । ततो विदुषां मध्ये मुनिः कन्यामस्तके स्वदक्षिणपाणितलं निधायोक्तवान्-हे वायुभूते, मया सूर्यमित्रेण राजगृहे यत्पाठितोऽसि तस्य सर्वस्य परीक्षा देहीत्युक्ते पण्डितः पृष्टस्थले मृदुमधुरविशदार्थसारध्वनिना परीक्षामदत्त सा । ततः सर्वजनाश्चर्य जातम् । पुनर्भूपो वभाण-हे मुनिनाथ, मे हृदये बहुकौतुकं वर्तते, नागश्रियः परीक्षा याचिता, वायुभूतिर्ददातीति । आचार्योऽब्रवीद्य एव वायुभूतिः सैव नागश्रीः । पुत्रीके लिये व्रत दिया है, इससे भला तुम्हारी क्या हानि हुई है ? यह सुनकर नागशर्माने कहा कि क्या यह तेरी पुत्री है ? मुनिने उत्तर दिया कि हाँ, यह मेरी पुत्री है। वह पुत्री मुनिको नमस्कार करके उनके समीपमें बैठ गई। तब ब्राह्मणने जाकर इस वृत्तान्तको राजासे कहा। इससे उस समय सबको बहुत आश्चर्य हुआ। फिर राजा, पुरवासी जन तथा बहुत-से अजैन जन भी मुनिकी वन्दना करने व इस कौतुकको देखने के लिये मुनिके समीपमें गये । वहाँ पहुँचकर राजाने उपर्युक्त दोनों मुनियों के लिये नमस्कार किया। फिर उसने सूर्यमित्र मुनिसे पूछा कि यह किसकी पुत्री है ? मुनिने उत्तर दिया कि यह मेरी पुत्री है । तब नागशर्माने कहा कि मेरी स्त्रीने उस नागकी पूजा करके इस पुत्रीको प्राप्त किया है, यह सब ही जन भले प्रकार जानते हैं। फिर हे देव ! यह इसकी पुत्री कैसे हो सकती है ? इसपर मुनि बोले कि हे राजन् ! यदि यह इसकी पुत्री है तो इसने उसे क्या कुछ व्याकरणादिको पढ़ाया है या नहीं ? ब्राह्मणने उत्तर दिया कि नहीं। तो फिर यह तुम्हारी पुत्री कैसे है, यह मुनिने नागशर्मासे प्रश्न किया। इसके उत्तरमें उसने पूछा कि क्या तुमने उसे कुछ पढ़ाया है ? इसके प्रत्युत्तरमें मुनिने कहा कि हाँ, मैंने उसे पढ़ाया है। इसपर राजाने कहा कि हे मुनिराज ! तो इसकी परीक्षा दिलाइये । तब मुनि बोले कि ठीक है, मैं इसकी परीक्षा भी दिला देता हूँ। तत्पश्चात् मुनिने उस कन्याके मस्तकपर अपने दाहिने हाथको रखते हुए कहा कि हे वायुभूति ! मुझ सूर्यमित्रने राजगृहके भीतर जो कुछ तुझे पढ़ाया था उस सबकी परीक्षा दे। इस प्रकार मुनिके कहनेपर विद्वान् पुरुषोंने जिस किसी भी स्थल (प्रकरण ) में जो कुछ भी नागश्रीसे पूछा उस सबका उत्तर उसने कोमल, मधुर, स्पष्ट एवं अर्थपूर्ण वाणीमें देकर उसकी परीक्षा दे दी। इससे सब लोगोंको बहुत ही आश्चर्य हुआ। फिर राजा बोला कि हे मुनीन्द्र ! मेरे हृदयमें बहुत कौतूहल हो रहा है। वह इसलिये कि हम लोगोंने नागश्रीसे परीक्षा दिलानेकी प्रार्थना की थी, परन्तु परीक्षा दे रहा है वायुभूति । इसपर मुनि बोले कि वायुभूति और नागश्री एक ही हैं । वह इस प्रकारसे---
१. फ श स द्विजराज्ञो। २. प श मद्भार्यालब्धेयमिति । ३. ब द्विजरुवाच त्वया। ४. ब सर्वपरीक्षाम् । ५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श नागश्रिया ।
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