________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[३-१, १८: [१८] श्रीसौभाग्यपदं विशुद्धिगुणकं दुःखार्णवोत्तारकं सार्वज्ञं बुधगोचरं सुसुखदं प्राप्यामलं भाषितम् । कान्तारे गुणवर्जितोऽपि हरिणो वालीह जातस्ततो
धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥१॥ अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डे किष्किन्धपुरे कपिध्वजवंशोद्भवविद्याधराणां मुख्यो राजा वालिदेवः। स चैकदा महामुनिमालोभ्य धर्मश्रुतेरनन्तरं 'जिनमुनि जैनोपासकं च विहायान्यस्मै नमो न करोमि' इति गृहीतव्रतः सुखेनास्थात् । इतो लङ्कायां रावणस्तत्प्रतिज्ञामवधार्यामन्यत 'मम नमस्कार' कर्तुमनिच्छन् गृहीतप्रतिज्ञः' इति । ततस्तत्र सप्राभृतं विशिष्टं प्रस्थापितवान् । स गत्वा वालिदेवं विज्ञप्तवान् जगद्विजयिदशास्येनादिष्टं शृणु। तथाहि- आवयोराम्नायभूताः परस्परं स्नेहेनैवावर्तिषतेति तदाचारस्त्वया पालनीयः । किं च, मया ते पितुः सूर्यस्य शत्रु महाप्रचण्डं यमं निर्घाटय राज्यं दत्तम् । तमुपकारं स्मृत्वा स्वभगिनीं श्रीमालां मह्यं दत्त्वा मां प्रणम्य सुखेन राज्यं कर्तव्यं त्वयेति । श्रुत्वा वालिदेवोऽवो. चत्तदुक्तं सर्वमुचितं, किंतु स्वयमसंयत इति तस्य नमस्कारकरणवचनमयुक्तम् , तद्विहा
___ सर्वज्ञके द्वारा प्ररूपित वस्तुस्वरूप लक्ष्मी व सौभाग्यका स्थानभूत, विशुद्धि गुणसे संयुक्त, दुखरूप समुद्रसे पार उतारनेवाला तथा विद्वानोंका विषय होकर निर्मल व उत्तम सुखको प्रदान करनेवाला है। उसको सुनकर एक गुणहीन जंगली हिरण भी यहाँ बाली हुआ है। इसलिए मैं लोकमें उस सर्वज्ञकथित तत्त्वकी प्राप्ति से जिनदेवका भक्त होकर उत्तम चारित्रको धारण करता हुआ धन्य होता हूँ ॥१॥
इसकी कथा इस प्रकार है- इसी आर्यखण्डके भीतर किष्किन्धापुरमें वानर वंशमें उत्पन्न हुए विद्याधरोंका मुख्य राजा वालिदेव राज्य करता था। एक दिन उसने किसी महामुनिका दर्शन करके उनसे धर्मश्रवण किया। तत्पश्चात् उसने उक्त मुनिराजके समक्ष यह प्रतिज्ञा की कि मैं दिगम्बर मुनि और जैन श्रावकको छोड़कर अन्य किसीके लिए भी नमस्कार नहीं करूंगा। वह इस प्रतिज्ञाके साथ सुखपूर्वक राज्य कर रहा था। इधर लंकामें रावणको जब यह ज्ञात हुआ कि वालि मुझे नमस्कार नहीं करना चाहता है तथा उसने इसके लिए प्रतिज्ञा ले रक्खी है, तब उसने वालिके पास भेटके साथ एक दूतको भेजा। दृतने जाकर वालिदेवसे निवेदन किया कि जगद्विजयी रावणने जो आपके लिए आदेश दिया है उसे सुनिए.- हम दोनोंमें परस्पर जो वंशपरम्परासे स्नेहपूर्ण व्यवहार चला आ रहा है उसका तुम्हें पालन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त मैंने तुम्हारे पिता सूर्य ( सूर्यरज ) के अतिशय पराक्रमी शत्रु यमको भगाकर उसे राज्य दिया था । उस उपकारके लिए कृतज्ञ होकर तुम अपनी बहिन श्रीमालाको मेरे लिए दो और मुझे नमस्कार करके सुखपूर्वक राज्य करो। यह सुनकर वालिदेवने कहा कि तुम्हारे स्वामीने जो कुछ कहा है वह सब ठीक है । किन्तु वह स्वयं व्रतहीन है, अतएव उसके लिए इस प्रकार नमस्कार करनेका
१. फमवधार्य अन्यतमं नमस्कार, शमवधार्यमन्यतमं नमस्कारं । २. शतत्र प्राभतं । ३. श तथाहि रावयो । ४. फ नव विवतिषते। इति, पश नव विवतिषते इति । ५. फ त्वदुक्तं । ६. फ' किन्तु' नास्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org