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२. पचनमस्कारमन्त्रफलम् ६ भ्रमता तेन वज्रनाभमुनिया॑नस्थो विद्धः समाधिना मध्यमवेयकसुभद्रविमाने जातो भिल्लः सप्तमावनौ। ततोऽवतीर्याहमिन्द्रोऽयोध्यापुरे वज्रबाहुप्रभंकर्योः सुत आनन्दनामा जातो महामण्डलेश्वरश्च, सागरदत्तमुनिसमीपे दीक्षितः षोडशभावनाः संभाव्य तीर्थकृत्त्वमुपायं क्षीरवने प्रतिमायोगं दधौ । भिल्लो नरकान्निःसृत्य तत्रारण्ये सिंहोऽजनि । तेन स मुनिर्मारितः सन् लान्तवेन्द्रोऽभूत् । सिंहो धूमप्रभां गतः । लान्तवेन्द्रो गर्भावतरणकल्याणपुरःसरवैशाखकृष्णद्वितीयायां ब्रह्मदत्तायाः गर्भे स्थितः, पुष्यकृष्णकादश्यां जज्ञे प्रियमुश्यामवर्णः नवहस्तोत्सेधः शतवर्षायुः। त्रिंशद्वर्षकुमारकाले सति पिता तद्विवाहार्थ पञ्चशतकन्याश्चानयामास । पुष्यकृष्णैकादश्यां ता विलोक्य वैराग्यं जगाम । विमलाभिधानां शिबिकामारुह्य पुरान्निःक्रान्तस्तपो गृहीत्वाष्टोपवासपूर्वकं राजसहस्रकेण अश्ववने निःक्रान्तोऽष्टमोपवासानन्तरं चर्यार्थ प्रविः कस्यचित् राज्ञो भवने क्षोरान्नेन पारणां चकार । चातुर्मासं तपो विधाय तत्रैव वने देवदारुवृक्षतले शिलापट्ट ध्यानस्थितो यदा तदा स सिंहो नरकान्निःसृत्य भ्रमित्वा महीपालपुरेशनृपालतनुजो ब्रह्मदत्ताया भ्राता महीपालसंज्ञोऽभूद्राज्येऽस्थात् ।
भील हुआ था । उसने शिकारके निमित्त घूमते हुए उन ध्यानस्थ वज्रनाभ मुनिको विद्ध कियावाणसे आहत किया। इस प्रकार समाधिसे मरणको प्राप्त होकर वे मुनिराज मध्यम अवेयकके अन्तर्गत सुभद्र विमानमें उत्पन्न हुए। और वह भील सातवीं पृथिवीमें जाकर नारकी हुआ । अहमिन्द्र देव अवेयक विमानसे च्युत होकर अयोध्यापुरीमें वज्रबाहु और प्रभंकरीके आनन्द नामका पुत्र हुआ। वह महामण्डलेश्वरकी लक्ष्मीको भोगकर सागरदत्त मुनिके पासमें दीक्षित हो गया। उसने दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिन्तन करके तीर्थकर प्रकृतिको बाँध लिया। वह एक दिन क्षीरवनके भीतर प्रतिमायोगको धारण करके स्थित था। उधर वह भूतपूर्व भीलका जीव नरकसे निकलकर उसी वनमें सिंह हुआ था । उसने उन मुनिराजको मार डाला। इस प्रकारसे शरीरको छोड़कर वे मुनिराज लान्तव स्वर्गमें इन्द्र हुए। और वह सिंह मरकर धूमप्रभा पृथिवीमें नारकी हुआ । लोन्तवेन्द्र गर्भावतरण कल्याणमहोत्सवपूर्वक वैशाख कृष्णा द्वितीयाके दिन ब्रह्मदत्ताके गर्भमें स्थित हुआ। उसने पौष कृष्णा एकादशीके दिन पार्श्वनाथ तीर्थकरके रूपमें जन्म लिया। पार्श्वनाथके शरीरका वर्ण प्रियंगु पुष्पके समान श्याम और ऊँचाई उनकी सात हाथ थी। उनकी आयु सौवर्षकी थी। तीस वर्ष प्रमाण कुमारकालके बीत जानेपर पिता उसके विवाहके लिए पाँच सौ कन्याओंको लाये । उन कन्याओं को देखकर वे पौष कृष्णा एकादशीके दिन वैराग्यको प्राप्त हुए। तब वे विमला नामकी पालकीपर चढ़कर नगरके बाहिर गये। उन्होंने अश्ववनमें पहुँचकर एक हजार राजाओंके साथ तीन उपवासपूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली। तीन उपवासके पश्चात् वे आहारके निमित्त किसी राजाके भवनमें प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने खीरको लेकर पारणा की। एक समय चातुर्मासिक तपको करके वे भगवान् उसी वन में देवदारु वृक्षके नीचे एक शिलाके ऊपर ध्यानस्थ होते हुए विराजमान थे। उधर वह सिंहका जीव नरकसे निकलकर परिभ्रमण करता हुआ महीपालपुरके राजा नृपालका पुत्र और ब्रह्मदत्ता ( भगवान्की माता ) का भाई हुआ
१ फ ब स तु । २. ब कन्या आनयामास । ३. प श पुष्ये। ४. बता। ५. फ शभिधानं । ६. ब शिविकामारुह्याष्टोपवासपूर्वकं राजसहश्रेण । ७. ब 'अष्टमोपवासानन्तरं चर्यार्थं प्रविष्टः' इत्येतावान् पाठो नास्ति । ८. ब पट्टे प्रतिमायोगमध्याद्यदा।
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