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उपक्रमनय के क्रम का प्रयोजन
क्षेत्र अनुयोग
पन्नत्तिजंबुद्दीवे खेत्तस्सेमाइ होइ अणुओगो । त्ताणं अणुओगो दीव-समुद्दाण
पन्नत्ती ॥
( विभा १३९९ )
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप क्षेत्र का अनुयोग है । द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में अनेक द्वीपों और सागरों का अनुयोग
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खेत्तं मयमागासं सव्वदव्वावगाहणा लिंगं । तं दव्वं चेव निवासमेत्तपज्जायओ खेत्तं ॥ ( विभा २०८८ ) आकाश को क्षेत्र कहते हैं । उसका लक्षण है सब द्रव्यों को स्थान देना । वह द्रव्य ही है किन्तु द्रव्यों की अवगाहना की अपेक्षा वह क्षेत्र है । काल अनुयोग
कालस्स समयरूवण कालाण तदाइ जाव सव्वद्धा । .." ( विभा १४०२ ) उत्पलशतपत्रभेद आदि दृष्टान्तों से समय का प्ररूपण करना तथा काल के समस्त भेद-प्रभेदों की व्याख्या करना कानुयोग है । वचन अनुयोग
..... वयणस्सेगवयाई वयणाणं सोलसण्हं तु । ( विभा १४०३ ) लिगतियं वयrतियं कालतियं तह परोक्ख पच्चक्खं । उवणयऽवणयचउद्धा अज्झतं होइ सोलसमं ॥ ( विभामवृ पृ ५१५) एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन की व्याख्या करना वचन अनुयोग है । इसके सोलह अंग हैंलिंग -१ स्त्री, २ पुरुष, ३ नपुंसक लिंगप्रधान वचन वचन- ४ एक वचन, ५ द्विवचन, ६ बहुवचन काल - ७ अतीत, ८ वर्तमान, ९ अनागत
परोक्ष - १० वह
प्रत्यक्ष - ११ यह
उपनय - १२ स्तुत्यात्मक वचन अपनय --- १३ निन्दात्मक वचन
उपनय- अपनय - १४ स्तुति - निन्दात्मक वचन अपनय - उपनय - १५ निन्दा - स्तुत्यात्मक वचन अध्यात्म - १६ आंतरिक वचन ।
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भाव अनुयोग
भावस्सेगयरस्स उ अणुओगो जो दोमाइसंनिगासे अणुओगो
अनुयोग
होइ
जहिट्टिओ भावो । भावाणं ॥ ( विभा १४०५ )
जो भाव जिस रूप में अवस्थित है, उसका उसी रूप संयुक्त भावों का प्ररूपण करना भाव अनुयोग है । में प्ररूपण करना भाव अनुयोग है। दो, तीन आदि
२. अनुयोग के प्रवेशद्वार
'''' चत्तारि अणुओगदारा भवंति, तं जहा - उबक्कने, णिक्खेवे, अणुगमे, नए । ( अनु ७५) चत्तारि ।
अणुओगद्दारा महापुरस्सेव तस्स अणुओगोति तदत्थो दाराई तस्स उ
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मुहाई ॥ (विभा ९०७)
अनुयोग इत्यध्ययनार्थः । द्वाराणि तत्प्रवेशमुखानि । यथेह पुरमद्वारमधिगन्तुमशक्यम् । एकद्वारमपि च कृच्छेणाधिगम्यते कार्यातिपत्तये च भवति । चतुभिः पुनर्मूलद्वारैश्च सुखेनाधिगम्यते न च कार्यातिपत्तये भवति । ( उचू पृ८) अनुयोग का अर्थ है— ग्रंथ का अर्थ । उसमें प्रविष्ट होने के मार्ग द्वार कहलाते हैं । अनुयोग के चार द्वार हैं -उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । इस द्वारचतुष्टयी से शास्त्र को सुगमता से समझा जा सकता है, कार्यातिपत्ति भी नहीं होती । द्वाररहित नगर में प्रवेश नहीं किया जा सकता । एक द्वार वाले नगर में कठिनाई से प्रवेश होता है और कार्य में विलम्ब हो जाता है । चार द्वार वाले नगर में सुख से प्रवेश किया जा सकता है और कार्य में बाधा नहीं आती। इसी प्रकार श्रुतरूप महानगर में भी अर्थाधिगम के उपायरूपी द्वार के बिना प्रवेश नहीं किया जा सकता । केवल एक अनुगमद्वार से भी प्रवेश बड़ी कठिनाई और लम्बे समय से हो सकता है । उपक्रम आदि चारों द्वारों से सहज ही अल्पकाल में प्रवेश किया जा सकता है ।
उपक्रम "नय के क्रम का प्रयोजन
दारक्कमोऽयमेव उ निक्खिप्पइ जेण नासमीवत्थं । अणुगम्मइ नाणत्थं नागमो नयमयविहूणो ॥ संबंधोaraमओ समी मणीय नत्थनिक्खेवं । नएहि नाणाविहाणे हि ।
सत्थं तओऽणु गम्म
( विभा ९१५,९१६)
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