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स्वलिंग सिद्ध
० जो 'प्र', 'परां' आदि उपसर्गयुक्त है । • जो बहुपद - अपरिमित पद वाला है । ● जो अव्यवच्छिन्न विरामरहित है । • जो गम और नयों से शुद्ध है ।
स्वलिंग सिद्ध-जैन मुनि के वेश में मुक्त होने (द्र सिद्ध )
वाला ।
स्वाध्याय - श्रुतग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन ।
१. स्वाध्याय क्या है ?
* स्वाध्याय : तप का एक भेद
२. स्वाध्याय के प्रकार
* स्वाध्याय का प्रयोजन
३. स्वाध्याय के परिणाम
४. स्वाध्याय का महत्त्व * स्वाध्याय काल
अस्वाध्याय काल
*
• आहार से पूर्व स्वाध्याय
* रात्रिकालीन स्वाध्यायविधि
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( द्र. तप)
( द्र. श्रुतज्ञान)
स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं
( व्र. काल विज्ञान ) (द्र अस्वाध्याय)
१. स्वाध्याय क्या है ?
सुयधम्मो सज्झायो । सज्झातो नाम सामाइ - एमादी जावं दुवालसंगं गणिपिडगं ।
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( द्र. आहार ) ( द्र. श्रमण )
( आवचू २ पृ७, ८)
स्वाध्याय श्रुतधर्मरूप है । सामायिक से द्वादशांग पर्यंत आगमों का परिशीलन करना स्वाध्याय है । प्रवचनं श्रुतमित्यर्थस्तद्धर्मः स्वाध्यायः ।
( उशावृ प ५८४)
प्रवचन का अर्थ है श्रुत । श्रुतधर्म का आचरण करना स्वाध्याय है ।
२. स्वाध्याय के प्रकार
वायणा पुच्छणा चेव, तहेव परियट्टणा । अणुपेहा धम्मका सज्झाओ पंचहा भवे ।। वाचना पाठनम् ।''''परावर्त्तना गुणनम् । अनुप्रेक्षा चिन्तनिका ।
( उ ३०1३४ शावृ प ५८४)
१. वाचना अध्यापन करना ।
२. प्रच्छना - अज्ञात विषय की जानकारी या ज्ञात विषय की विशेष जानकारी के लिए प्रश्न करना ।
स्वाध्याय के परिणाम
३. परिवर्तना परिचित विषय को स्थिर रखने के के लिए उसे बार-बार दोहराना ।
४. अनुप्रेक्षा - परिचित और स्थिर विषय पर चिंतन करना, पर्यालोचन करना ।
५. धर्मकथा - स्थिरीकृत और पर्यालोचित विषय का उपदेश करना ।
३. स्वाध्याय के परिणाम
है ।
...सज्झाएणं नाणावर णिज्जं कम्मं खवेइ ।
( उ २९/१९) स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय कर्म को क्षीण करता
वाचना
.... वायणाए णं निज्जरं जणयइ, सुयस्स य अणासायणा वट्टए । सुयस्स अणासायणात् वट्टमाणे तित्थधम्मं अवलंबइ । तित्थधम्मं अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । ( उ२९०२० ) वाचना ( अध्यापन) से जीव कर्मों को क्षीण करता है। श्रुत की उपेक्षा के दोष से बच जाता है । इस उपेक्षा के दोष से बचने वाला तीर्थ धर्म का अवलम्बन करता है। - वह शिष्यों को श्रुत देने में प्रवृत्त होता है। तीर्थधर्म का अवलम्बन करने वाला कर्मों और संसार का अन्त करने वाला होता है ।
प्रच्छना
डिपुच्छणयाए णं सुत्तत्थतदुभयाई विसोहेइ । कंखामोहणिज्जं कम्मं वोच्छिदइ । (उ२९/२१) प्रतिप्रश्न करने से जीव सूत्र, अर्थ और उन दोनों से सम्बन्धित संदेहों का निवर्तन करता है और कांक्षामोहनीय कर्म का विनाश करता है ।
परिवर्तना
.....परियणाए णं वंजणाई जणयइ, वंजणलद्धि च उप्पाएइ । ( उ २९।२२) परावर्त्तना (पठित पाठ के पुनरावर्तन) से जीव अक्षरों को उत्पन्न करता है- स्मृत को परिपक्व और विस्मृत को याद करता है तथा व्यंजन-लब्धि (वर्ण-विद्या) को प्राप्त होता है ।
अनुप्रेक्षा
संभवति परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षा ।
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विस्मरणमतः सोऽपि ( उशावृप ५८४)
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