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इच्छाकार सामाचारी
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सामाचारी
निषीधिका--निषद्या के कई अर्थ हैं-शरीर, आलय, सम्पादित हो चुका हो । वसति, स्थण्डिल । शरीर जीव का आलय है। प्रतिषिद्ध ......"पुवनिसिद्धेण होइ पडिपुच्छा ।... के आसेवन का निवर्तन करने वाली क्रिया निषीधिका
(आवनि ६९७) प्रयोजनवश पूर्वनिषिद्ध कार्य करने की आवश्यकता
होने पर गुरु से उसकी आज्ञा लेना प्रतिपृच्छा है । आप्रच्छना सामाचारी ......."आपुच्छणा सय करणे. (उ २६१५)
छन्दना और अभ्युत्थान सामाचारी ___ अपना कार्य करने से पूर्व गुरु से अनुमति लेना
छंदणा दव्वजाएणं... । आप्रच्छना सामाचारी है।
अभट्टाणं गुरुपूया" "॥ (उ २६।६,७) सकलकृत्याभिव्याप्त्या प्रच्छना आप्रच्छना-इदमहं
"""पुव्वगहिएण छंदण णिमंतणा होअगहिएणं ॥ कुर्या न वेत्येवंरूपा तां स्वयमित्यात्मनः करणं कस्यचिद्
(आवनि ६९७) विवक्षितकार्यस्य निर्वर्तनं स्वयंकरणम् ।
आभिमुख्येनोत्थानम् - उद्यमनमभ्युत्थानं तच्च गुरुउच्छवासनि:श्वासी विहाय सर्वकार्येष्वपि स्वपर- पूजाया, सा च गारवाहाणा आचाय
पूजायां, सा च गौरवार्हाणां आचार्यग्लानबालादीनां सम्बन्धिषु गुरवः प्रष्टव्याः, अतः सर्वविषयमपि प्रथमतः यथोचिताहारभेषजादिसम्पादनम् । इह च सामान्याभिप्रच्छन मापृच्छा।
(उशाव प ५३४, ५३५) धानेऽप्यभ्युत्थानं निमन्त्रणारूपमेव परिगृह्यते । सब कार्यों के लिए 'मैं यह काम करूं या नहीं ?'
(उशाव प ५३५) इस प्रकार गुरु से अनुमति लेना आप्रच्छना है। अपने
मुनि पूर्वगहीत-भिक्षा में प्राप्त अशन आदि द्रव्यों किसी विवक्षित कार्य को करना स्वयंकरण है।
से गुरु आदि को निमंत्रित करे-यह छंदना सामाचारी __ श्वासोच्छवास को छोड़कर स्व और पर से संबंधित
गुरुपूजा-आचार्य, ग्लान, बाल आदि साधुओं के प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व गुरु से आपृच्छा करना
लिए यथोचित आहार, औषधि आदि लाना अभ्युत्थान आप्रच्छना है।
सामाचारी है । अभ्युत्थान और निमन्त्रण एकार्थक हैं। किच्चाकिच्चं गुरवो विदंति विणयपडिवत्तिहेउं च ।
इच्छाकार सामाचारी उस्सासाइ पमोत्तुं तदणापुच्छाए पडिसिद्धं ॥
(विभा ३४६४)
.."इच्छाकारो य सारणे ।... गुरु कृत्याकृत्य को जानते हैं। विनयप्रतिपत्ति के लिए
सारणे इत्यौचित्यत आत्मन: परस्य वा कृत्यं उच्छ्वास आदि को छोड़ कोई कार्य गुरु को बिना पूछे । प्र
. प्रति प्रवर्त्तने । तत्रात्मसारणे यथेच्छाकारेण यूष्मच्चिनहीं करना चाहिए।
कीषितं कार्यमिदमहं करोमीति । "अन्यसारणे च मम
पात्रलेपनादि सूत्रदानानि वा इच्छाकारेण कुरुतेति । प्रतिप्रच्छना सामाचारी
(उ २६।६ शाव प ५३५) ..."परकरणे पडिपुच्छणा ।।
जइ अब्भत्थेज्ज परं कारणजाए करेज्ज से कोई। परकरणे अन्यप्रयोजन विधाने प्रतिप्रच्छना, गुरुनियु- तत्थवि इच्छाकारो ण कप्पई बलाभिओगो उ ।। क्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव गुरुं, स हि
(आवनि ६६८) कार्यान्तरमप्यादिशेत सिद्धं वा तदन्यतः स्यादिति ।
सारणा में इच्छाकार का प्रयोग करना--जहां (उ २६।५ शाव प ५३४) औचित्य हो, वहां स्वयं और अन्य के कार्य में प्रवृत्त होना एक कार्य को सम्पन्न कर परकरण-दूसरा कार्य इच्छाकार सामाचारी है । जैसेकरते समय गुरु से पुनः पूछना प्रतिप्रच्छना है। गुरु के आत्मसारण-इच्छा हो तो आपका यह कार्य मैं द्वारा किसी कार्य में नियुक्त होने पर भी प्रवृत्तिकाल में
करू । -कार्य करते समय पुन: गुरु की आज्ञा लेनी चाहिये । अन्यसारण - आपकी इच्छा हो तो आप मुझे सूत्र संभव है गुरु किसी दूसरे कार्य के लिए आदेश दें। यह
की वाचना दें, पात्र के लेप लगा दें आदि । भी संभव है, पूर्व निर्दिष्ट कार्य किसी अन्य के द्वारा प्रयोजन होने पर जो दूसरे से अपना कार्य कराना
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