________________
समाधि
६६९
समिति
को सफल बनाता है।
समिति—सम्यक् प्रवृत्ति । ४. आत्मोत्कर्ष नहीं करता। श्रुत-समाधि
१. समिति की परिभाषा
२. समिति के प्रकार चउव्विहा खलु सुयसमाही भवइ, तं जहा
३. ईर्या समिति १. सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ ।
ईर्या के आलम्बन आदि २. एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयध्वं भवइ । ० अविधि गमन का निषेध ३. अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ ।
* भिक्षागमन : विधि-निषेध (द्र. गोचरचर्या) ४. ठिओ परं ठावइस्सामित्ति अज्झाइयव्वं भवइ।
* गमनमार्ग का निर्धारण (द्र. श्रमण) (द ९।४। सूत्र ५)
ईसिमित : अहिंसक
* भाषा समिति, एषणा समिति (इ. संबद्ध नाम) श्रुत-समाधि के चार प्रकार हैं
४. आदान-निक्षेप समिति १. मुझे श्रुत प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना
५. उत्सर्ग समिति चाहिए।
. उत्सर्ग योग्य स्थण्डिल भूमि २. मैं एकाग्र-चित्त होऊंगा, इसलिए अध्ययन करना
० शव-परिष्ठापन विधि __ चाहिए।
* आहार-जल परिष्ठापन विधि (द्र. आहार) ३. मैं आत्मा को धर्म में स्थापित करूंगा, इसलिए |
६. पांच समितियों के उदाहरण ___अध्ययन करना चाहिए।
७. समिति-गप्ति : प्रवचनमाता ४. मैं धर्म में स्थित होकर दूसरों को उसमें स्थापित
८. समिति के आठ प्रकार करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए ।
९. समिति और गप्ति : एक विमर्श तप-समाधि चउन्विहा खलु तवसमाही भवइ, तं जहा
१. समिति की परिभाषा १. नो इहलोगट्ठयाए तवमहिछेज्जा।
समिति :--सम्यक सर्ववित्प्रवचनानुसारितया इति:२. नो परलोगट्ठयाए तवमहिछेज्जा।
आत्मन: चेष्टा समितिः तान्त्रिकी सञ्ज्ञा ईर्यादिचेष्टासु ३. नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्टयाए तवमहिद्वैज्जा।
पञ्चसु।
(उशावृ प ५१४) ४. नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिद्वैज्जा।
जिनप्रवचन के अनुरूप प्रवृत्ति करना समिति है। यह
६) जैन सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है । तप-समाधि के चार प्रकार हैं
जहा जलमज्झे गच्छमाणा अपरिस्सवा नावा जलकंतारं १. इहलोक (वर्तमान जीवन की भोगाभिलाषा) के वीईवयइ न य विणासं पावइ । "एवं साहूवि जीवाउले निमित्त तप नहीं करना चाहिए।
लोगे गमणादीणि कुव्वमाणो संवरियासवदुवारत्तणेण २. परलोक (पारलौकिक भोगाभिलाषा) के निमित्त तप संसारजलकतारं वीयीवयइ । संवरियासवदुवारस्स न नहीं करना चाहिए।
कुओवि भयमथि।
(दजिचू पृ १५९) ३. कीति, वर्ण,शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना जिस प्रकार निश्छिद्र नौका जल में तैरती हुई भी चाहिए।
डबती नहीं और समुद्र के पार पहुंच जाती है, वैसे ही ४. निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप इस जीवाकुल लोक में संयमपूर्वक गमन आदि करता हुआ नहीं करना चाहिए।
संवृतात्मा भिक्षु संसार-समुद्र का पार पा लेता है। आचार-समाधि (द्र. आचार)
जिसने आश्रवरूपी छिद्रों को बन्द कर दिया, उसको कहीं से भी भय नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org