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देशविरति सामायिक
५. बहिः पुद्गलप्रक्षेप - दिग्व्रत में क्षेत्र की जो सीमा की हो, उससे बाहर किसी वस्तु को फेंककर कार्य
करवाना।
११. पौषधोपवास
पोसहोववासे चव्विहे पण्णत्ते, तं जहा आहारपोसहे सरीरसक्कारपोस हे बंभचेरपोसहे अव्वावारपोसहे । पोसहोववासस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणिव्वा तं जहा - अप्पडिले हिय - दुप्पडिले हिय - सिज्जा संथारए अप्पमज्जिय- दुप्पमज्जिय सिज्जासंथारए अप्प - डिले हिय- दुप्पडिले हिय - उच्चारपासवणभूमीओ अप्पमज्जिय- दुप्पमज्जिय - उच्चारपासवणभूमीओ पोसहोववा - सस्स सम्म अणणुपालणया । ( आव परि पृ २३ ) पौषधोपवासव्रत के चार प्रकार हैं- आहार का पौषध, शरीर-सत्कार का पौषध, ब्रह्मचर्य पौषध, प्रवृत्ति - वर्जनरूप पोषध |
पौषधोपवास व्रत के पांच अतिचार हैं—
१. स्थान और बिछौने का प्रतिलेखन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना ।
२. स्थान और बिछौने का प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना ।
३. उच्चार- प्रस्रवण भूमियों का प्रतिलेखन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना ।
४. उच्चार-प्रस्रवण भूमियों का प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना ।
५. पौषध-व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन न करना । पोषणं पोषः, स चेह धर्म्मस्य तं धत्त इति पोषधः । द्वयोरपि सितेतररूपयोः पक्षयोश्चतुर्दशी पूर्णमास्यादिषु तिथिषु अपेर्गम्यमानत्वादेक रात्रमपि उपलक्षणत्वाच्च - क दिनमपि न हानि प्रापयति । रात्रिग्रहणं च दिवा व्याकुलतया कर्तुमशक्नुवन् रात्रावपि पोषधं कुर्यात् ।
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( उशावृ प २५१ ) जो धर्म को पुष्ट करता है, वह पौषध है । पौषध कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि तिथियों में किया जाता है। इसका कालमान हैअहोरात्र | व्याकुलता के कारण यदि कोई दिन में पौषध न कर सके तो वह रात्रि में भी किया जा सकता है । १२. अतिथि संविभाग
अतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणिज्जाणं अन्नपाणाईणं दव्वाणं देसकालसद्धासक्का रकमजुअं पराए
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श्रावक
भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं ।
अतिहिसंविभागस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियव्वा तं जहा - सच्चित्तनिवखेवणया, सच्चित्तपिहृणया का लाइक्कमे परववए से मच्छरिया य । ( आव परि पृ २३ ) अतिथि संविभाग ( यथासंविभाग ) का अर्थ हैआत्मानुग्रह की बुद्धि से संपन्न हो परम भक्तिपूर्वक संयमी को दान देना । वह अन्नपान आदि देय वस्तु न्याय से अजित, एषणीय, देश - काल - श्रद्धा सत्कार और क्रम से युक्त हो ।
अतिथि संविभाग के पांच अतिचार हैं
१. मुनि के लिए ग्रहणीय वस्तु को सचित्त वस्तु के
ऊपर रखना ।
२. मुनि के लिए ग्रहणीय वस्तु को सचित्त वस्तु से
ढकना ।
३, भिक्षा के काल का अतिक्रमण करना ।
४. अपनी वस्तु न देने की भावना से उसे दूसरों की बतलाना ।
५. दूसरे को दान देते देखकर प्रतिस्पर्धात्मक भाव से दान देना ।
समणोवासगधम्मे पंचाणुव्वयाई तिन्नि गुणव्वयाई आवकहियाई, चत्तारि सिक्खावयाइं इत्तरियाई । ( आव परि पृ २३ )
श्रावक के पांच अणुव्रत और तीन गुणव्रत यावत्कथिक - जीवनपर्यंत तथा चार शिक्षाव्रत इत्वरिक अल्पकालिक होते हैं ।
शिक्षा नाम यथा शैक्षकः पुनः पुनर्विद्यामभ्यसति एवमिमाणि चत्तारि सिक्खावयाणि पुणो पुणो अब्भसिज्जंति । ( आवचू २ पृ २९८ ) शिक्षार्थी पुनः पुनः विद्या का अभ्यास करता है । इसी प्रकार जिनका पुनः पुनः अभ्यास किया जाता है, शिक्षाव्रत कहलाते हैं । वे चार हैं -सामायिक, देशाकाशिक, पौषधोपवास और यथासंविभाग ।
५. देशविरति सामायिक ( अगारधर्म) के पर्यायवाची
विरयाविरई संवुडमसंबुडे बालपंडिए चेव । देसेक्सविरई अणुधम्मो अगारधम्मो य ॥
( आवनि ८६३) विरताविरत, संवृतासंवृत, बालपंडित, देशक देश
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