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भ्रमण
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श्रमण कौन ?
श्रमण-साधु, मुनि, निग्रंथ ।
१ श्रमण कौन ? २. श्रमण (अनगार) के सत्ताईस गुण ३. श्रमण की पृष्ठभूमि ४. श्रमण के एकार्थक * श्रमण के प्रकार
(द्र. पाषंड) ५. प्रमत्त श्रमण
० अप्रमत्त श्रमण ६. श्रमण की दिनचर्या
० स्वाध्याय-क्रम * स्वाध्याय-काल
(द्र. काल विज्ञान) * प्रतिलेखनाविधि
(द. प्रतिलेखना) * भिक्षाविधि
(द्र. गोचरचर्या) * भिक्षा के दोष
(द्र. एषणा) * आहारविधि
(द्र. आहार) ७. शयन विधि
० संस्तारक भूमि
० शय्या-अतिचार प्रतिक्रमण ८. विहार विधि : नौकल्पी विहार
० विहार करने के कारण ० विहार का अधिकारी ० गमन-मार्ग का निर्धारण
• जल संतरण विधि ९. श्रामण्य की दुश्चरता १०. श्रमण : उरग, गिरि आदि उपमाएं ११. श्रमण की अवहेलना के परिणाम * श्रमण का आचार, प्रतिक्रमण, महावत, संयम, समिति,
गप्ति, परीषह, प्रत्याख्यान, गणस्थान (द्र. संबद्धनाम) * चारित्र के अठारह हजार अंग (द्र. चारित्र) * चारित्रिक स्थिरता के आलम्बन (द्र. चारित्र) * श्रमण और श्रावक में अन्तर
(द्र.श्रावक) * श्रमण धर्म
(द्र. धर्म) * भिक्षुप्रतिमा
(. प्रतिमा)
नस्थि य से कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अ.नो वि पज्जाओ ।। .."तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो. समो य माणावमाणेसु ।।
(अनु ७०८) • जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सब जीवों को
दुःख प्रिय नहीं है, यह जानकर जो किसी प्राणी की घात न करता है और न करवाता है। इस प्रकार समता में गतिशील होने के कारण वह
समण कहलाता है। ० सब जीवों में कोई उसका अप्रिय और प्रिय
नहीं है। . सब जीवों में सम मन वाला होने के कारण वह
समन (समना) कहलाता है। • जो सु-मन-श्रेष्ठ मन वाला होता है, भाव से
पाप-मन वाला नहीं होता, स्व जन और अन्य जन में तथा मान और अपमान में सम होता है, वह श्रमण कहलाता है । रागडोसा दंडा जोगा तह गारवा य सल्ला य । विगहाओ सण्णाओ खुहं कसाया पमाया य ।। एयाइं तु खुहाई जे खलु भिदंति सुव्वया रिसओ। ते भिन्नकम्मगंठी उविति अयरामरं ठाणं ।।
(उनि ३७८,३७९) श्रमण वह है० जो राग-द्वेष को जीत लेता है। • जो मन, वचन और काया-इन तीनों दण्डों में
सावधान रहता है । ० जो न सावध कार्य करता है, न दूसरों से करवाता
है और न उसका अनुमोद। करता है। . ० जो ऋद्धि, रस और साता का गौरव नहीं करता। ० जो मायावी नहीं होता, जो निदान नहीं करता __ और जो सम्यग्दर्शी होता है। ० जो विकथाओं से दूर रहता है । ० जो आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार
संज्ञाओं को जीत लेता है। • जो कषायों पर विजय पा लेता है। • जो प्रमाद से दूर रहता है।
जो कर्म-बन्धन को तोड़ने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। जो ऐसा होता है, वह समस्त ग्रन्थियों का छेदन कर अजर-अमर पद को पा लेता है।
१. श्रमण कौन ? समयाए समणो होइ ।
(उ २५।३०) 'जो समभाव की साधना करता है, वह श्रमण है। जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावइ य, सममणती तेण सो समणो ।।
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