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लेश्या के स्थान
लेश्या
गण मइसुयालय कहादवलेवासाओ ।।
(तिर्यंच और मनुष्य जिस लेश्या में उत्पन्न होते हैं, प्रतिबिम्बसंक्रान्तौ रक्तादिरूपता प्रतिपद्यते तथा कृष्णाद्यउस लेश्या में भी मर सकते हैं और अन्य लेश्या में भी शुभद्रव्याण्यपि तेजस्यादिशुभद्रव्यप्रतिबिम्बसंक्रमे निजरूपोमर सकते हैं। देखें-पण्णवणा पद १७।१०२-१०४। त्कटतां परित्यज्य तदाभासतां प्रतिपद्यन्ते । ततो नारकाजीव जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या में उत्पन्न दीनामपि कृष्णाद्यशुभद्रव्यानुभावं मन्दतां नीत्वा शुभानि होता है। भगवई ३।१८३)
तेजस्यादिद्रव्याणि शुभां भावलेश्यां जनयन्ति। १२. श्रुत आदि सामायिक और लेश्या
(विभामवृ २ पृ १६३)
देव और नारक के द्रव्यलेश्या अवस्थित होती है, सम्मत्तसुयं सव्वासु लहइ सुद्धासु तीसु य चरित्तं ।।
तब सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति के समय अवस्थित कृष्ण पुव्वपडिवनगो पुण अण्णयरीए उ लेसाए ।
आदि लेश्याओं के अशुभ द्रव्य शुभ भावलेश्या को कैसे
(आवनि ८२२) उत्पन्न कर सकते हैं क्योंकि द्रव्यलेश्या भावलेश्या का सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक की प्राप्ति कृष्ण आदि जनक है? छहों लेश्याओं में हो सकती है। देशविरति और चारित्र
सम्यक्त्व प्राप्ति के समय यथाप्रवृत्तिकरण (आत्मा सामायिक की प्राप्ति तीन शुभ लेश्याओं में ही होती है।
के परिणाम विशेष) के द्वारा तैजस आदि शुभलेश्या के पूर्व प्रतिपन्नता की अपेक्षा चारों सामायिक छहों लेश्याओं में हो सकती हैं।
द्रव्य आक्षिप्त होते हैं। शुभ द्रव्यों के प्रतिबिम्ब संक्रान्त
होने पर कृष्ण आदि द्रव्य अपनी उत्कटता को छोडकर नणु म इसुयाइलाभोऽभिहिओ सुद्धासु तीसु लेसासु ।
शुभ द्रव्यों के रूप में आभासित होते हैं जैसे श्वेत दर्पण में सुद्धासु असुद्धासु य कहमिह सम्मत्त-सुयलाभो ? | सुर-नरइएसु दुगं लब्भइ य, दव्वलेसया सव्वे । जपाकुसुम आदि का प्रतिबिम्ब पड़ने पर दर्पण भी रक्तता नाणेसु भावलेसाऽहिगया इह दव्वलेसाओ।।
को प्राप्त हो जाता है। कृष्ण आदि अशुभ द्रव्यों का
का अनुभाव मन्द हो जाने से शुभ द्रव्य शुभ भावलेश्या को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्राप्ति तीन शूद्ध लेश्याओं निष्पन्न करते हैं। में बताई गई है, तब सम्यक्त्व और श्रुत सामायिक की १३. लेश्या के स्थान प्राप्ति शुद्ध-अशुद्ध छहों लेश्याओं में कैसे?
असंखिज्जाणोसप्पिणीण, उस्सप्पिणीण जे समया । ज्ञान के प्रसंग में भावलेश्या की अपेक्षा से तथा
संखाईया लोगा, लेसाण हुंति ठाणाई ।। सामायिक के प्रसंग में द्रव्य लेश्या की अपेक्षा से यह निरूपण है।
(उ ३४।३३) देव और नारक सम्यक्त्व और श्रत सामायिक प्राप्त
असंख्येय अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के जितने समय करते हैं। सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति के समय भाव
होते हैं, असंख्यात लोकों के जितने आकाश-प्रदेश होते हैं, लेश्या शुद्ध ही होती है।
उतने ही लेश्याओं के स्थान (अध्यवसाय-परिणाम) होते तिर्यञ्च और मनुष्य की द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या परिवर्तित होती रहती है। देव और नारक की
(प्रत्येक लेश्या की अनंत वर्गणाएं हैं, प्रत्येक लेश्या द्रव्य लेण्या अवस्थित होती है, भाव लेश्या परिवर्तित असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ है। जैसे वैडूर्यमणि होती रहती है।
अपने उपाधिद्रव्यों के प्रतिबिम्ब से उस-उस रूप में परियदि देवनारकाणां कष्णादिका अशभा द्रव्यलेश्याः णत हो जाती है, वैसे ही एक लेश्या दूसरी लेश्या के वर्ण. सदाऽवस्थिता भवन्ति तदा सम्यक्त्वादिलाभकाले कथं तेषां गंध आदि रूप में परिणत हो सकती है। नारक और शुभभावलेश्यासंभवः ? द्रव्यलेश्या हि भावलेश्या जन- देवों की द्रव्यलेश्या में यह परिणमन सम्भव नहीं है। यन्ति ।"नारकादीनामपि सम्यक्त्वादिलाभकाले कथमपि भवनपति और व्यन्तर देवों में कृष्ण, नील, कापोत यथाप्रवृत्तिकरणेन शुभानि तेजस्यादिद्रव्यलेश्याद्रव्याण्या- और तेजोलेश्या होती है। ज्योतिष्क तथा सौधर्म और क्षिप्यन्ते । ततो यथाऽऽदर्शः श्वेतोऽपि जपा-कुसुमादिवस्तु- ईशान देवों में केवल तेजोलेश्या होती है। सनत्कुमार,
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