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लेश्या
वह मध्यम आयु वाले भवनपति और वानव्यंतर देवों की अपेक्षा से है ।)
तेजोलेश्या की स्थिति
दस वाससहस्साइं, तेऊए ठिई जहन्निया होइ। दुष्णुदही पलिओम, असंखभागं च उक्कोसा || ( उ ३४/५३) भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक — इन चारों प्रकार के देवों की अपेक्षा तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर की होती है ।
वैमानिक - लेश्या स्थिति
पलिओवमं जहन्ना, उक्कोसा सागरा उ दुहहिया । पलियमसंखेज्जेणं, होइ भागेण ऊ || जा तेऊए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्ने पम्हाए दस उ, मुहुत्तहियाइं च उक्कोसा || पहा ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं सुक्काए, तेत्तीस मुहुत्तममहिया || ( उ ३४।५२,५४,५५)
वैमानिक देवों के तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति एक पल्योपम और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर की होती है ।
तेजोलेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह पद्म लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त अधिक दश सागर की होती है ।
पद्म लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति होती और उसकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त अधिक तेतीस सागर की होती है ।
इह च नारकाणामुत्तरत्र च देवानां द्रव्यलेश्या - स्थितेरेवैवं चिन्त्यते । तद्भावलेश्यानां परिवर्त्तमानतयाऽन्यथाऽपि स्थितेः सम्भवात् ।
देवाण नारयाण य दव्वलेसा भवंति एयाओ । भावपरावत्तीए सुरणेरइयाण छल्लेसा ॥ ( उशावृ प ६५९ )
देव और नारक की लेश्या की जो स्थिति बताई गई है, वह द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से है । भावपरिवर्तन की
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लेश्याओं के परिणाम
अपेक्षा से उनमें छहों लेश्याएं होती हैं, जिनकी स्थिति अन्यथा भी हो सकती है ।
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तियंच- मनुष्य- लेश्या - स्थिति
अंतोमुहुत्तम, लेसाण ठिई जहि जहि जा उ । तिरियाणं नराणं वा, वज्जित्ता केवलं लेसं ॥ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, उक्कोसा होइ पुव्वकोडी उ । नवहि वरिसेहि ऊणा, नायव्वा सुक्कलेसाए ॥ ( उ ३४१४५,४६ )
तिर्यञ्च और मनुष्य में जितनी लेश्याएं होती हैं, उनमें से शुक्ल लेश्या को छोड़कर शेष सब लेश्याओं की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है । मनुष्य में लेश्या की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त्त शुक्ल और उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष न्यून एक करोड़ पूर्व की होती है ।
इह च यद्यपि कश्चित् पूर्व कोट्यायुरष्टवार्षिक एव व्रतपरिणाममाप्नोति तथापि नैतावद्वयःस्थस्य वर्षपर्यायादर्वाक् शुक्ललेश्याया: सम्भव इति नवभिर्वर्षेना पूर्व कोटिरुच्यते । ( उशावृ प ६६० )
शुक्ल लेश्या की स्थिति नौ वर्ष न्यून एक पूर्व कोटि बतलाई गई है । इसका हेतु है – एक करोड़पूर्व की आयु वाला कोई पुरुष आठ वर्ष की अवस्था में ही मुनि बन जाता है । उस वय में शुक्ल लेश्या संभव नहीं होती । एक वर्ष के मुनि पर्याय के पश्चात् ही उसका उदय होता है, इसलिए यहां नौ वर्ष न्यून की बात कही गई है । ६. लेश्याओं के परिणाम
पंचासवप्पवत्तो तीहि अगुत्तो छसु अविरओ य । तिव्वारंभपरिणओ खुद्दो साहसिओ नरो ॥ निबंध सपरिणामो निस्संसो अजिइंदिओ । एयजोगसमाउत्तो किण्हलेसं तु परिणमे || इस्साअमरिसअतवो अविज्जमाया अहीरिया । गेद्धी पओसे य सढे पत्ते रसलोलुए सायगवेसए य ।। आरंभाओ अविरओ खुद्दो साहस्सिओ नरो । एयजोगसमाउत्तो नीललेसं तु परिणमे || वंके वकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जुए । पलिउंचग ओहिए मिच्छदिट्ठी अणारिए || उप्फालगदुदुवाई य तेणे यावि य मच्छरी । एजोगसमाउत्तो काउलेसं तु परिणमे ॥
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