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लब्धि और भव्य जीव
कोष्ठबुद्धि
..... कोट्टयधन्नसुनिग्गलसुत्तत्था कोट्टबुद्धीया ।। (विभा ७९९ ) कोष्ठ इव धान्यं या बुद्धिराचार्य मुखाद्विनिर्गतो तदस्थावेव सूत्रार्थी धारयति न किमपि तयो: सूत्रार्थयोः कालान्तरेऽपि गलति सा कोष्ठबुद्धिः । ( नन्दीमवृप १०६ )
जिस प्रकार कोष्ठ में धान्य सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार जो बुद्धि आचार्य द्वारा कथित सूत्र और अर्थ को उसी रूप में धारण कर लेती है तथा कालान्तर में भी उनका क्षरण नहीं होता, वह कोष्ठबुद्धि है । बोजबुद्धि
जो अत्थपए णत्थं अणुसरइ स बीयबुद्धी उ ।। ( विभा ८०० )
ateबुद्धी नाम बीजमात्रेण उवलभति,
जहा सित्थेण दोणपाकं । ( आवचू १ पृ७० ) या पुनरेकमर्थपदं तथाविधमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमर्थमवगाहते सा बीजबुद्धिः ।
( नन्दीमवृप १०६ )
जो एक अर्थपद का अनुसरण कर शेष अश्रुत प्रचुर अर्थों को यथार्थ रूप में जानती है, वह बीजबुद्धि है । जैसे एक सिक्थ से द्रोणपाक जान लिया जाता है । बीजबुद्धि और गणधर
बुद्धि: सर्वोत्तम प्रकर्षप्राप्ता भगवतां गणभृतां, ते हि उत्पादादिपदत्रयमवधार्यं सकलमपि द्वादशाङ्गात्मकं प्रवचनमभिसूत्रयन्ति । ( नन्दीमवृप १०६ )
सभी गणधर सर्वोत्तम बीजबुद्धि के धारक होते हैं । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य - इस त्रिपदी का अवधारण कर वे संपूर्ण द्वादशांगात्मक प्रवचन की रचना करते हैं । पदानुसारिणी बुद्धि
जो सुत्तएण बहुं सुयमणुधावर पयाणुसारी सो ।'''' ( विभा ८०० )
जो एक भी सूत्रपद का अवधारण कर शेष प्रभूत सूत्रपदों का यथार्थ अवगाहन कर लेती है, वह पदानुसारी बुद्धि है ।
क्षीरात्रव लब्धि
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खीरासवो बोलेज्ज णज्जति खीरासवं मुयति, खीरासवो नाम जहा चक्कवट्टिस्स लक्खो गावीणं, ताणं जं खीरं तं अद्धद्धस्स दिज्जति, तं चातुरक्कं एवं खीरासवो भवति । (आवचू १ पृ७०, ७१)
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लब्धि
क्षीरास्रव लब्धि सम्पन्न व्यक्ति जब बोलता है, तब ऐसा प्रतीत होता है मानो क्षीर का स्रवण हो रहा है । चक्रवर्ती की एक लाख गायों का दूध पचास हजार गायों को पिलाया जाता है । फिर उनका दूध पच्चीस हजार गायों को पिलाया जाता है, तत्पश्चात् पच्चीस हजार गायों का दूध साढ़े बारह हजार गायों को पिलाया जाता है । इस क्रम से अन्तिम एक गाय का दूध आगम की भाषा में चातुरक्य कहलाता है । क्षीरास्रवलब्धिधर के वचन में उस दूध के समान मिठास होती है । अक्षीणमहानस लब्धि
अक्खमाणसियस्स भिक्खं ण अन्नेणं णिट्ठविज्जति, तंमि जिमिते निट्टाति ।
( आवचू १ पृ ७१ ) अक्षीणमहानस लब्धि से सम्पन्न मुनि का भिक्षा में प्राप्त भोजन समाप्त नहीं होता चाहे वह कितने ही मुनियों को भोजन खिलाये । उसके स्वयं के खाने के बाद ही वह भोजन समाप्त होता है । लब्धि और भव्य जीव
भवसिद्धियाणमेया वीसं पि हवंति एत्थ लद्धीओ.... जिण-बल-चक्की - केसव - संभिन्नेजंघचरण पुव्वे य । भविया इत्थीए एयाओ न सत्त लद्धीओ ॥
शेषास्तु त्रयोदश: लब्धयः स्त्रीणां भवन्तीति सामयद् गम्यते ।
रिजुमइ विउलमईओ सत्त य एयाओ पुव्वभणियाओ । लद्धीओ अभव्वाणं होंति नराणं पि न कयाइ ॥ अभवियमहिलाणं पि हु एयाओ न होंति भणियलद्धीओ । महुखीरासवलद्धी वि नेय सेसा उ अविरुद्धा ।।
( विभामवृ १ पृ ३२८ ) भव्य जीवों के बीसों लब्धियां हो सकती हैं । अर्हत्, बलदेव, चक्रवर्ती, वासुदेव, संभिन्नश्रोत, जंघाचारण और पूर्व - ये सात लब्धियां स्त्री में नहीं होतीं, शेष तेरह लब्धियां हो सकती हैं ।
अर्हत्, बलदेव, वासुदेव, चक्री, संभिन्नश्रोत, जंघा - चारण, पूर्वधर, ऋजुमति और विपुलमति ये लब्धियां अभव्य पुरुषों और अभव्य स्त्रियों में नहीं होतीं । अभव्य स्त्री को मधुक्षीरास्रव लब्धि भी प्राप्त नहीं हो सकती । गणधर - पुलाका-ऽऽहारका दिलब्धयो भव्यानामेव भवन्ति । ( विभामवृ १ पृ ३२९ ) गणधर, पुलाक, आहारक आदि लब्धियां भव्यों के ही हो सकती हैं ।
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