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विद्याचारण लब्धि
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लब्धि
जिन्हें चारित्र और विशिष्ट तपोनुष्ठान से गमन- जन्य लब्धि क्षीण होने लगती है । इसलिए लौटते समय आगमन विषयक लब्धि प्राप्त होती है, वे जंघाचारण मुनि दो उड़ानों में अपने स्थान पर पहुंचता है ।
विद्याचारण लब्धि अस्य च यथाविधि सातिशयाष्टमलक्षणेन विकृष्ट- यो विद्यावशतः
यो विद्यावशतः समुत्पन्नगमनागमनलब्ध्य तिशयाः ते तपसा सर्वदैव तपस्यतो जङ्गाचारणलब्धिरुत्पद्यते ।
विद्याचारणाः।
(नन्दीमवृ प १०६) (विभाम१पृ ३२३) जिनमें विद्याबल से गमन और आगमन की लब्धि की विधिपूर्वक विशेष रूप से तेले-तेले (तीन-तीन दिन विशेषता उत्पन्न होती है, वे विद्याचारण हैं। का उपवास) की विकृष्ट तपस्या निरन्तर करने से जंघा
यथाविधि सातिशयषष्ठलक्षणेन तपसा सर्वदैव चारण लब्धि उत्पन्न होती है ।
तपस्यतो विद्याचारणलब्धिरुत्पद्यते। ___ जंघाचारणलद्धिसंपन्नो अणगारो लूतापुडकतंतुमेत्त
(विभामवृ १ पृ ३२२) मवि णीसं काऊण गच्छति । (आवचू १पृ ६९) विधिपूर्वक सातिशय बेले-बेले (दो-दो दिन का
जंघाचारण लब्धि सम्पन्न मुनि मकड़ी के जाले से उपवास) की निरन्तर तपस्या करने से विद्याचारण लब्धि निष्पन्न तंतु के सहारे गमनागमन कर लेता है। प्राप्त होती है।
जनाचारणा यत्र कुत्रापि गन्तुमिच्छवः तत्र रवि- विज्जाचारणलद्धीओ विज्जातिसयसामत्थजत्तयाए करानपि निश्रीकृत्य गच्छन्ति । (नन्दीमव प १०७) पुव्वविदेहअवरविदेहादीणि खेत्ताणि अप्पेण कालेण आगा
सेण गच्छति। जंघाचारण मुनि सूर्य की किरणों के सहारे भी र
(आवचू १ पृ ६९)
विद्याचारण लब्धि सम्पन्न व्यक्ति विद्या के अतिशय गमनागमन करते हैं ।
से अल्पकाल में ही आकाशमार्ग से पूर्व विदेह से अपर- जंघाचारणास्तु रुचकवरद्वीपं यावद् गन्तुं समर्थाः ।....
विदेह आदि क्षेत्रों में चला जाता है। जवाचारण: रुचकवरद्वीपं गच्छन्ने केनैवोत्पातेन गच्छति,
विद्याचारणा नन्दीश्वरं विद्याचारण: पुनः प्रथमेप्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनोत्पातेन नन्दीश्वरमायाति द्वितीयेन ।
नोत्पातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छति द्वितीयेन तु नन्दीस्वस्थानं, यदि पुनरुशिखरं जिगमिषुस्तहि एकेनैवोत्पा
श्वरं, प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनवोत्पातेन स्वस्थानमायाति । तेन पण्डकवनमधिरोहति, प्रतिनिवर्तमानस्तु प्रथमेनोत्पा
तथा मेरुं गच्छन् प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनं गच्छति तेन नन्दनवनमागच्छति द्वितीयेन स्वस्थानमिति । जंघा
द्वितीयेन पण्डकवनं, प्रतिनिवर्त्तनमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन चारिणो हि चारित्रातिशयप्रभावतो भवति ततो लब्ध्यु- स्वस्थानमायाति । विद्याचारणो हि विद्यावशाद भवति, पजीवने औत्सुक्यभावतः प्रमादसंभवाच्चारित्रातिशयनि- विद्या च परिशील्यमाना स्फुटा स्फुटतरोपजायते, ततः बन्धना लब्धिरपहीयते ततः प्रतिनिवर्तमानो द्वाभ्यामुत्पा- प्रतिनिवर्तमानस्य शक्त्यतिशयसम्भवादेकेनोत्पातेन ताभ्यां स्वस्थानमायाति । (नन्दीमवृ प १०७) स्वस्थानागमनम् ।
(नन्दीमवृ प १०७) जंघाचारण लब्धि से सम्पन्न मुनि रुचकवरद्वीप तक विद्याचारण मुनि नन्दीश्वरद्वीप तक जाने में समर्थ जा सकता है। वह प्रथम उड़ान में रुचकवरद्वीप में जाता होता है। वह प्रथम उड़ान में मानुषोत्तर पर्वत पर है। लौटते समय दूसरी उड़ान में नन्दीश्वरद्वीप में आता जाता है । दूसरी उड़ान में वहां से नन्दीश्वरद्वीप है, तीसरी उड़ान में अपने मूल स्थान पर आ जाता है। में जाता है। वहां से एक ही उड़ान में अपने स्थान यदि वह मेरुशिखर पर जाता है तो प्रथम उड़ान में पण्डक पर लौट आता है। वन में जाता है। दूसरी उड़ान में नन्दनवन में लौट मेरुपर्वत पर जाता हआ वह प्रथम उड़ान में नन्दनआता है। तीसरी उड़ान में वहां पहुंच जाता है, जहां से वन में तथा दूसरी उड़ान में पण्डकवन में जाता है। उड़ान भरी थी।
लौटते समय एक ही उड़ान में अपने मूल स्थान पर आ जंघाचारण लब्धि चारित्र के अतिशय के प्रभाव जाता है। से उत्पन्न होती है। लब्धि के प्रयोग में उत्सुकता विद्याचारणलब्धि विद्या के अतिशय से प्राप्त होती का भाव तथा प्रमाद की सम्भावना के कारण चारित्र- है। पूनः पुनः परिशीलन से विद्या स्फूट-स्फूटतर हो
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