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रात्रिभोजनविरमण
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रात्रिभोजनविरमण और शासनभेद
और खाने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, याव- सम्यक्त्व, महाव्रत और अणुव्रत मूलगुण हैं। मूलगुण ज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से -- मन से, वचन उत्सरगुणों के आधार हैं। से, काया से --न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले __ रात्रिभोजन-विरमण व्रत के बिना मूलगुण परिपूर्ण का अनुमोदन भी नहीं करूगा ।
नहीं होते । अतः मुलगुण के ग्रहण से अर्थत: उसका भी अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए।
ग्रहण हो जाता है। आहारमइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए ।
....."वयधारिणो च्चिय तयं मूलगुणो सेसयस्सियरो॥
(द ८।२८) सव्वव्वओवगारिं जह तं न तहा तवादओ वीसुं । मुनि सूर्यास्त से लेकर पुनः सूर्योदय न हो, तब तक जं ते तेणुत्तरिया होति गुणा तं च मूलगुणो।। सब प्रकार के आहार की मन से भी इच्छा न करे। उभयधर्मकं हि रात्रीभोजनविरमणम्, यतो गृहस्थ
स्य तदुत्तरगुण:, तस्याऽऽरम्भजप्राणातिपातादनिवृत्तत्वात, १. रात्रिभोजन वर्जन और अहिंसा
निशि भोजनेऽपि मूलगुणानामखण्डनात्, अत्यन्तोपकारासंतिमे सुहुमा पाणा तसा अदुव थावरा ।
भावादिति; वतिनस्तु तदेव मूलगुणः, तस्याऽऽरम्भजादपि जाइं राओ अपासंतो कहमेसणियं चरे? |
प्राणातिपाताद् निवृत्तत्वात्, रजनिभोजने च तत्संभवात, उदउल्लं बीयसंसत्तं पाणा निवडिया महिं ।
अतस्तद्विधाने मूलगुणानां खण्डनात्, तद्विरमणे तु तेषां दिया ताई विवज्जेज्जा राओ तत्थ कहं चरे ।।
संरक्षणेनात्यन्तोपकारात् तत् तस्य मूलगुणः । तप:एय च दोसं दठ्ठणं नायपुत्तेण भासियं ।
प्रभृतीनां चेत्थमत्यन्तोपकारित्वाभावादुत्तरगुणत्वमिति । सव्वाहारं न भुजंति, निग्गंथा राइभोयणं ।।
(विभा १२४०,१२४५ मवृ पृ ४७१) (द ६।२३-२५) रात्रिभोजनविरमण व्रत उभय धर्मात्मक है--साध जो त्रस और स्थावर सूक्ष्म प्राणी हैं, उन्हें रात्रि में के लिा
के लिए वह मूलगुण और गृहस्थ के लिए उत्तरगुण
वर नहीं देखता हआ निर्ग्रन्थ एषणा कैसे कर सकता है ? उदक है। गहस्थ श्रावक आरंभजन्य हिंसा से पण से आई और बीजयुक्त भोजन तथा जीवाकूल मार्ग
नहीं होता, अतः रात्रिभोजन से उसके मूलगुण खंडित उन्हें दिन में टाला जा सकता है पर रात में उन्हें टालना नहीं होते । साधु पूर्णतः अहिंसक हाते हैं, अतः रात्रिशक्य नहीं इसलिए निग्रंथ रात को भिक्षाचर्या कैसे कर भोजन से
भोजन से उनके मूलगुण खंडित होते हैं। रात्रिभोजन सकता है ! ज्ञातपुत्र महावीर ने इस हिसात्मक दोष का विरमण से मूल गुणों का संरक्षण होता है, अतः वह मूलदेखकर कहा.-..--"जो निग्रंथ होते हैं वे रात्रिभोजन नहीं
गुणों का अत्यंत उपकारी होने से मूलगुण के रूप में करते, चारों प्रकार के आहार में से किसी भी प्रकार का
स्वीकृत है। तप, स्वाध्याय आदि मूल गुणों के अत्यंत उपआहार नहीं करते ।"
कारक न होने के कारण उत्तरगुण हैं। ३. रात्रिभोजनविरमण उत्तरगुण
५. रात्रिभोजनविरमण और शासनभेद कि रातीभोयणं मूलगुण: उत्तरगुणः ? उत्तरगुण
पुरिमजिणकाले पुरिसा उज्जुजडा पच्छिम जिणकाले एवायं । तहावि सव्वमूलगुणरक्खाहेतुत्ति मूलगुणसम्भूतं
पुरिसा वंकजडा । अतो निमित्तं महव्वयाण उरि ठवियं, पढिज्जति।
(दअचू पृ८६)
जेण तं महब्वयमिव मन्नंता ण पिल्लेहिंति । मज्झिमगाणं पांच महाव्रत मूलगुण हैं और रात्रिभोजनविरमण
पुण एवं उत्तरगुणेसु कहियं । किं कारणं ? जेण ते उज्जुउत्तरगुण है। फिर भी यह मूलगुणा का रक्षा का हेतु है, पण्णत्तणेण सहं चेव परिढरंति। (दजिच ११५३) इसलिए इसका मूलगुणों के साथ प्रतिपादन किया गया है।
प्रथम तीर्थंकर के मुनि ऋजूजड़ और अंतिम तीर्थकर ४. रात्रिभोजनविरमण मूलगुण
के मुनि वक्रजड़ होते हैं। रात्रिभोजनविरमण व्रत को सम्मत्तसमेयाई महव्वयाणुव्वयाई मूलगुणा । महाव्रतों की श्रृंखला में छठा व्रत रखा गया है, जिससे मूलं सेसाहारो ........."
कि वे इसका महाव्रतों की तरह पालन कर सकें। जम्हा मूलगुण च्चिय न होति तविरहियस्स पडिपुन्ना। मध्यवती तीर्थंकरों के मुनियों के लिए इस तो मूलगुणग्गहणे तग्गहणमिहत्थओ नेयं ।। गिनाया है, क्योंकि वे ऋजूप्राज्ञ होते हैं इसलिए वे रात्रि
(विभा १२३९, १२४३) भोजन का परिहार सरलता से कर लेते हैं ।
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