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राजीमती
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रथनेमि और राजीमती
कल्प में सामानिक देव बना, धनपति भी उसी विमान में सत्यनेमि और दृढ़नेमि । अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थंकर उत्पन्न हुई।
हए और रथनेमि तथा सत्यनेमि प्रत्येकबुद्ध हुए। वहां से च्यवन कर धन का जीव वैताढ्य गिरि पर धिरत्थ ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा। सुरतेज राजा के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम वंतं इच्छसि आवेउ, सेयं ते मरणं भवे ।। चित्रगति रखा गया। वह विद्याधरों का राजा बना ।
अस्ट्रिणे मिसामिणो भाया रहणेमी भट्रारे पव्वइतं धनपति का जीव सूरराजा की पुत्री के रूप में
रायमति आराहेति 'जति इच्छेज्ज।' सा निविण्णकामउत्पन्न हुआ । उसका नाम रत्नवती रखा गया। चित्रगति
भोगा तस्स विदिताभिप्पाया कल्लं मधु-घयसंजुत्तं पेज्जं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ । अन्त में दोनों ने मुनि- पिबित आगते कुमारे मदणफलं मुहे पक्खिप्प पात्रीए छड्डे धर्म स्वीकार किया । चित्रगति माहेन्द्र कल्प में सामानिक ।
तुमूवणिमंतेति -पिबसि पेज्ज? तेण पडिवणे वंतवणदेव बना और रत्नवती उसका मित्रदेव बनी।
यति । तेण "किमिदं' ? इति भणिते भणति- इदमवि वहां से च्यवन कर चित्रगति (धन) अपराजित राजा एवंप्रकारमेव, भावतो हं भगवता परिच्चत्त त्ति वंता, और रत्नवती (धनपति) उसकी प्रियमती पत्नी बनी। अतो तुज्झ मामभिलसंतस्स........ (द २७ अच पृ ४९) श्रमण-धर्म का पालन कर वह आरण कल्प में सामानिक
(केशव ने अरिष्टनेमि के लिए राजीमती की मांग देव और प्रियमती उसका मित्रदेव बनी।
की। विवाह के लिए जाते हए अरिष्टनेमि ने पशुओं का वहां से च्यवन कर वे शंख राजा और यशोमती
करुण क्रन्दन सुना। उनका मानस द्रवित हो उठा। वे रानी बने । शंख ने उसी भव में श्रमण-धर्म स्वीकार कर
प्रव्रज्या के लिए वहीं से मुड़ गए।) तीर्थकरनामगोत्र का बन्ध किया और अपराजित विमान
जब अरिष्टनेमि प्रवजित हो गए, तब उनके में उत्पन्न हुआ, यशोमती भी मुनिधर्म के प्रभाव से वहीं
भ्राता रथनेमि राजीमती को प्रसन्न करने लगे, जिससे उत्पन्न हुई।
कि वह उन्हें चाहने लगे। भगवती राजीमती का अपराजित विमान से च्यवन कर शंख का जीव
: मन काम-भोगों से उदासीन हो चुका था । उसे सोरियपूर में कार्तिक कृष्णा द्वादशी को शिवादेवी के गर्भ
रथनेमि का अभिप्राय ज्ञात हो गया। एक बार उसने में उपपन्न हुआ । माता ने चौदह स्वप्न देखे। श्रावण
मधु-घृत संयुक्त पेय पीया और जब रथनेमि आये तो शुक्ला पंचमी को इस पुत्ररत्न का जन्म हुआ, जिसका
मदनफल मुख में ले उसने उल्टी की और रथनेमि से नाम रखा गया अरिष्टनेमि । इनके पिता समुद्रविजय दस
बोली...'इस पेय को पीओ।' रथनेमि बोले-'वमन दशा) में ज्येष्ठ राजा थे। उस समय सोरियपुर में द्वैध
किए हुए को कैसे पीऊं?' राजीमती बोली-'यदि वमन राज्य था । अंधक और वृष्णि -ये दो राजनैतिक दल
किया हआ नहीं पीते तो मैं भी अरिष्टनेमि स्वामी द्वारा वहां का शासन चलाते थे। समुद्रविजय अंधकों के नेता
वमन की हुई हूं। मुझे ग्रहण करना क्यों चाहते हो ? थे और वसुदेव वृष्णियों के ।
धिक्कार है तुम्हें जो वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा यशोमती (धनपति) का जीव अपराजित विमान से
करते हो। इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है।'. च्यवकर राजीमती के रूप उत्पन्न हुआ। उसके पिता का
इसके बाद राजीमती ने धर्म कहा। रथनेमि समझ गए नाम उग्रसेन और माता का नाम धारिणी था।
और प्रवजित हो गये। राजीमती भी उन्हें बोध दे रथनेमि और राजीमती
प्रवजित हुई। तेसिं पुत्ता चउरो अरिट्ठनेमी तहेव रहनेमी ।
गिरि रेवययं जंती, वासेणुल्ला उ अंतरा । तइओ अ सच्चनेमी चउत्थओ होइ दढनेमी ।।
वासंते अंधयारम्मि, अंतो लयणस्स सा ठिया ।। जो सो अरिदुनेमी बावीसइमो अहेसि सो अरिहा। चीवराई विसारंती, जहाजाय त्ति पासिया। रहनेमि सच्चनेमी एए पत्तेयबुद्धा उ ।
रहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिवो य तीइ वि।।
(उनि ४४४,४४५) भीया य सा तहिं दर्छ, एगते संजयं तयं । समुद्रविजय के चार पुत्र थे -अरिष्टनेमि, रथनेमि, बाहाहि काउं संगोफ, वेवमाणी निसीयई ।।
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