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योनि के अन्य प्रकार
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रसपरित्याग
भेद हैं। इन मूल भेदों का गणित इस प्रकार है
२. उष्ण-तेजस्काय के जीवों की योनि उष्ण होती है। ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श और ५ संस्थान-- ३. मिश्र-शीतोष्ण-देव, गर्भज-तिथंच और गर्भजइनका परस्पर गुणन करने पर २००० की संख्या प्राप्त मनुष्यों की योनि शीतोष्ण होती है। पृथ्वीकाय, होती है। इस संख्या का सात लाख पृथ्वीकाय में भाग
अपकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, देने पर (७०००००-२०००) भागफल ३५० होता है चतुरिन्द्रिय, सम्मूच्छिमतिर्यक्पंचेन्द्रिय और सम्मूऔर ये ही पृथ्वीकाय के मूल भेद हैं। इसी प्रकार शेष च्छिममनुष्यों की योनि शीत, उष्ण और शीतोष्णयोनियों के मूल भेद जाने जा सकते हैं । जीवों के उत्पत्ति- तीनों प्रकार की होती है। स्थान असंख्य हैं, किन्तु समान वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और
योनि संस्थान वाले स्थानों को एक मानकर उन्हें चौरासी लाख
एगिदिय-नेरइया संवुडजोणी हवंति देवा य । कहा गया है।)
विगलिंदियाण वियडा, संवडवियडा य गब्भम्मि ।। ३. सचित्त-अचित्त-मिश्र योनि
(नन्दीहावृटि पृ १००) मिस्सत्तं जोणीए सुक्कमचित्तं सचेयणं रुहिरं ।
योनि के तीन प्रकारअहवा सुक्कं रुहिरं अचेयण-सचेयणा जोणी ।। १. संवृत-ढकी हुई । देव, नारक और एकेन्द्रिय जीवों एवं मिश्रत्वं तिर्यग्-मनुष्यस्त्रीयोनेः । तथा
की योनि संवृत होती है। अचित्ता खलु जोणी नेरइयाणं तहेव देवाणं । २. विवृत-प्रकट । विकलेन्द्रिय, सम्मूच्छिमतिर्यंचमीसा य गब्भवसही, तिविहा जोणी उ सेसाणं ।।
पंचेन्द्रिय और सम्मृच्छिममनुष्यों की योनि विवृत तिर्यग्-मनुष्यगर्भजव्यतिरिक्तानां सम्मूर्छनजतिर्यग्
होती है। मनुष्याणां यथा गोकृम्यादीनां सचित्ता, काष्ठघणादीनाम
३. मिश्र--गर्भज तिर्यंचपंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों चित्ता, गोकृम्यादीनामेव केषाञ्चित् पूर्वकृतक्षते समुद्- की योनि संवृत-विवृत होती है। भवतां मिश्रेति त्रिधात्वम् । (नन्दीहावृष्टि पृ १००) ६. योनि के अन्य प्रकार योनि के तीन प्रकार
शङ्खावर्ता कूर्मोन्नता वंशीपत्रा चेति त्रिधा मनुष्य, सचित्त-सजीव । जीवित गाय के शरीर में कृमि स्त्रीविषया स्यात । तत्र चपैदा होते हैं, वह सचित्त योनि है।
उत्तमनरमाऊणं नियमा कुम्मुन्नया हवइ जोणी । २. अचित्त-निर्जीव । देव और नारकी की योनि
इयराण वंसपत्ता, संखावत्ता उ रयणस्स । ___अचित्त होती है।
(नन्दीहावृटि पृ १००) ३. मिश्र-सजीव-निर्जीव । गर्भज-मनुष्य और गर्भज- १. शंखावर्ता-शंख के समान आवर्त (घुमाव) वाली। तिर्यंचों की योनि मिश्र होती है। इनकी उत्पत्ति
यह योनि स्त्री-रत्न की होती है। शुक्र और शोणित के सम्मिश्रण से होती है। शुक्र
२. कूर्मोन्नता--कछुए के समान उन्नत । यह योनि और शोणित के जो पुदगल आत्मसात् हो जाते हैं, तीर्थंकर आदि उत्तम पुरुषों की माता के होती है। वे सचित्त और जो आत्मप्रदेशों से सम्बद्ध नहीं होते, ३. वंशीपत्रिका-बांस की जाली के पत्रों के आकार वे अचित्त कहलाते हैं।
वाली। यह योनि सामान्य-जनों की माता के होती सम्मूच्छिम तिर्यंच और सम्मूच्छिम मनुष्यों की योनि तीनों प्रकार की होती है।
(शंखावर्ता योनि में बहत से जीव और पुदगल आते ४. शीत-उष्ण-मिश्र योनि
हैं, गर्भरूप में उत्पन्न होते हैं। उनका चय-उपचय भी होता सीओसिणजोणिया सव्वे देवा य गब्भवक्कंती ।
है, किन्तु वे निष्पन्न नहीं होते। (देखें-पनवणा ९।२६) उसिणा य तेउकाए, दुह नरए, तिविह सेसाणं ॥ रसपरित्याग-दूध, दही आदि रसों का वर्जन ।
___ (नन्दीहावृटि पृ १००) खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं । योनि के तीन प्रकार
परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं ।। १. शीत-प्रथम नरक के नारकों की योनि शीत होती है।
(उ ३०।२६)
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