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योगपरित्याग के परिणाम
योगसंग्रह ध्यान और लेश्या शुभ या अशुभ होते हैं, मिश्र नहीं योगसंग्रह-आलोचना आदि के द्वारा प्रशस्त होते । ये भावयोग हैं। अत: भावयोग मिश्र नहीं होता।
योगों का संग्रहण । ज्ञान आदि की ४. मावसत्य
वृद्धि के हेतुओं का संग्रहण । भावसत्येन शुद्धान्तरात्मतारूपे पारमार्थिकावितथत्वे । आलोयणा निरवलावे, आवई दढधम्मया ।
(उशावृ प ५९१) अणिस्सिओवहाणे य, सिक्खा णिप्पडिकम्मया ।। भावसत्य का अर्थ है-अन्तरात्मा की सचाई।
अण्णाणया अलोहे य, तितिक्खा अज्जवे सुई । भावसच्चेणं भावविसोहिं जणयइ। भावविसोहीए सम्मदिट्ठी समाही य, आयारे विणओवए । वद्रमाणे जीवे अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए
धिई मई य संवेगे, पणिही सुविहि संवरे । अब्भुठेइ, "अब्भुट्टित्ता परलोगधम्मस्स आराहए हवइ । अत्तदोसोवसंहारो, सव्वकामविरत्तिया ।।
(उ २९।५१) पच्चक्खाणा विउस्सग्गे, अप्पमाए लवालवे । भावसत्य से जीव भाव की विशुद्धि को प्राप्त करता झाणसंवरजोगे य, उदए मारणंतिए । है । भावविशुद्धि में वर्तमान जीव अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म की संगाणं च परिणा, पायच्छित्तकरणे इय । आराधना के लिए तैयार होता है । अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म की आराहणा य मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ।। आराधना में तत्पर होकर वह परलोक धर्म का आराधक
(आवनि १२७४-१२७८) होता है।
योगसंग्रह के बत्तीस प्रकार-. ५.करणसत्य
१. आलोचना-अपने प्रमाद का निवेदन करना। करणसत्यं-यत्प्रतिलेखनादिक्रियां सम्यगुपयुक्तः ।
२. निरपलाप-आलोचित प्रमाद का अप्रकटीकरण । (उशाव प ५९२)
३. आपत्काल में दृढ़धर्मता-किसी भी प्रकार की विहित क्रियाओं (प्रतिलेखना आदि) को सम्यक्
__ आपत्ति में दृढ़धर्मी बने रहना। प्रकार से सम्पादित करना करणसत्य है।
४. अनिश्रितोपधान दूसरों की सहायता लिए बिना करणसच्चेणं करणसत्ति जणयइ। करणसच्चे वट्ट
तपःकर्म करना। माणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ ।
५. शिक्षा-सूत्रार्थ का पठन-पाठन तथा विहित क्रिया
(उ २९।५२) का आचरण। करणसत्य से जीव करण-शक्ति (अपूर्व कार्य करने ६. निष्प्रतिकर्मता-शरीर की सार-संभाल या चिकित्सा का सामर्थ्य) को प्राप्त करता है। करण-सत्य में वर्तमान का वर्जन। जीव जैसा कहता है वैसा करता है।
७. अज्ञातता-अज्ञात रूप में तप करना, उसका प्रदर्शन ६. योगसत्य
या प्रख्यापन नहीं करना ।
८. अलोभ-निर्लोभता का अभ्यास । जोगसच्चेणं जोगं विसोहेइ । (उ २९।५३)
९. तितिक्षा-कष्ट-सहिष्णुता, परीषहों पर विजय पाने योगसत्य से मन, वाणी और काया की प्रवृत्ति का
का अभ्यास । विशोधन होता है।
१०. आर्जव-सरलता । ७. योगपरित्याग के परिणाम
११. शुचि-पवित्रता-सत्य, संयम आदि का आचरण । जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ। अजोगी णं १२. सम्यग्दष्टि सम्यग्दर्शन की शुद्धि । जीवे नवं कम्मं न बंधइ पुव्वबद्धं निज्जरेइ । (उ २९।३८) १३. समाधि-चित्त-स्वास्थ्य ।
योग-प्रत्याख्यान से जीव अयोगत्व (सर्वथा अप्रकंप- १४. आचार-आचार का सम्यक् प्रकार से पालन । भाव) को प्राप्त होता है। अयोगी जीव नए कर्मों का १५. विनयोपग ---विनम्रता । अर्जन नहीं करता और पूर्व अजित कर्मों को क्षीण कर १६. धतिमति-धैर्ययुक्त बुद्धि।
१७. संवेग --संसार-वैराग्य अथवा मोक्ष की अभिलाषा ।
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