________________
मोक्ष
गाणं पयासगं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो । तिहपि सभाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ || ( आवनि १०३ )
५३६
ज्ञान प्रकाश करने वाला है । तप शोधन करता है । संयम गुप्ति - निग्रह करता है । तीनों के समायोग समन्विति को जिनशासन में मोक्ष कहा गया है।
निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो ॥ ( उ २३३८३ )
जो निर्वाण है, जो अबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध है, जिसे महान् की एषणा करने वाले प्राप्त करते हैं, वह मोक्ष है ।
..... सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावत्ति जणयइ । अणरावत पत्तए य णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ । ( उ २९/४५) सर्वगुणसंपन्नता से जीव अपुनरावृत्ति (मुक्ति) को प्राप्त होता है । अपुनरावृत्ति को प्राप्त करने वाला जीव शारीरिक और मानसिक दुःखों का भागी नहीं होता । २. मोक्ष का मार्ग
नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा । एयं मग्गमणुपत्ता जीवा गच्छंति सोग्गइं ॥ ( उ २८।३) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के मार्ग में प्रस्थित जीव सद्गति को प्राप्त होते हैं ।
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ ( उ २८ ३०) अदर्शनी ( असम्यक्त्वी) के सम्यग्ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्रगुण नहीं होते । अगुणी व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती । अमुक्त का निर्वाण नहीं होता । तस्सेस मग्गो गुरुविद्ध सेवा, विवज्जणा बालजणस्स द्वरा । सज्झायए गंत निसेवणा य, सुत्तत्थसंचितणया धिय ॥ ( उ ३२/३ ) गुरु और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी जनों का दूर से ही वर्जन करना, स्वाध्याय करना, एकांतवास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना तथा धैर्य रखना - यह मोक्ष का मार्ग है ।
Jain Education International
मोक्ष: साध्य और सिद्धि
छंद निरोहेण उवेइ मोक्खं, आसे जहा सिक्खिय वम्मधारी । पुव्वाई वासाइं चरप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ॥ ( उ ४।८) शिक्षित ( शिक्षक के अधीन रहा हुआ) तनुत्राणधारी अश्व जैसे रण का पार पा जाता है, वैसे ही स्वच्छन्दता का निरोध करने वाला मुनि संसार का पार पा जाता है । पूर्वजन्म में जो अप्रमत्त होकर विचरण करता है, वह उस अप्रमत्तविहार से शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है ।
सद्धं
नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं । खंति निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥ धणुं परक्कम किच्चा, जीवं च इरियं सया । धिरं च केयणं किच्चा, सच्चेण पलिमंथए । तवनारायजुत्तेण, भेत्तूर्ण मुणी विगयसंगामो भवाओ
1
कम्मकंचुयं परिमुच्चए ||
( उ ९।२०- २२)
० श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा या सहिष्णुता को त्रिगुप्त – बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय मन, वचन और कायगुप्ति से सुरक्षित, दुर्जेय और सुरक्षा निपुण परकोटा बना ।
• पराक्रम को धनुष, ईर्यापथ को उसकी डोर और धृति को उसकी मूठ बना उसे सत्य से बांधे ।
• तप- रूपी लोह - बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म रूपी कवच को भेद डाले। इस प्रकार संग्राम का अन्त कर मुनि संसार से मुक्त हो जाता है । ३. मोक्ष : साध्य और सिद्धि
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणई सोच्चा, ज छेयं तं समायरे ॥ (द ४|११ ) जीव सुनकर कल्याण को जानता है और सुनकर ही पाप को जानता है । कल्याण और पाप सुनकर ही जाने जाते हैं । वह उनमें जो श्रेय है उसी का आचरण करे । जो जीवे विवियाणाइ, अजीवे वि वियाणइ । जीवाजीवे वियाणतो, सो हु नाहिइ संजमं ॥ जया जीवे अजीवे य, दो वि एए वियाणइ । तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाई ॥ ....तया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणई ॥ तया निव्विदिए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org