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मन के अवग्रह, ईहा...
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मन
जिस जीव में दीर्घकालिकी संज्ञा का विकास होता जैसे चक्रवर्ती के चक्ररत्न में जो छेदन-सामर्थ्य है, वह संज्ञी (समनस्क) और जिसमें इसका विकास होता है, वह तलवार, दात्र या शरपत्र आदि में नहीं नहीं होता, वह असंज्ञी (अमनस्क) है।
होता-छेदक भाव तुल्य होने पर भी इनका छेदन प्राणियों में अर्थोपलब्धि के स्तर
सामर्थ्य क्रमशः हीयमान ही होता है, वैसे ही प्राणियों में रूवे जहावलद्धी चक्खुमओ दंसिए पयासेण । चैतन्य तुल्य होने पर भी समनस्क प्राणियों में अवग्रह तह छविहोवओगो मणदव्वपयासिए अत्थे ।।
आदि संबन्धी वस्तुबोध की जो पटुता होती है, वैसी अविसुद्धचक्खुणो जह नाइपयासम्मि रूवविण्णाणं । पटुता एकेन्द्रिय आदि अमनस्क प्राणियों में नहीं होती। असण्णिणो तहत्थे थोवमणोदव्वलद्धिमओ॥ मन के अवग्रह, ईहाजह मुच्छियाइयाणं अव्वत्तं सव्वविसयविण्णाणं । ___ एवंचिय सुमिणाइसु मणसो सहाइएसु विसएसु । एगिदियाण एवं, सुद्धयर बेइंदियाईणं ॥ होंतिदियवावाराभावे वि अवग्गहाईया ।। (विभा ५१०-५१२)
दत्तकपाट-सान्धकाराऽपवरकादीनीन्द्रियव्यापाराभावजैसे चक्षष्मान् व्यक्ति को प्रदीप के प्रकाश में स्फुट वन्ति स्थानानि गह्यन्ते, तेष केवलस्यैव मनसो मन्यअर्थ की उपलब्धि होती है, वैसे ही मनोविज्ञानावरण
मानेषु शब्दादिविषयेष्ववग्रहादयोऽवग्रहे-हा-पाय-धारणा कर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव को चिन्ताप्रवर्तक मनोद्रव्य
भवन्तीति स्वयमभ्यूह्याः तथाहि स्वप्नादौ चित्तोत्प्रेक्षाके प्रकाश में अर्थ की उपलब्धि स्पष्ट होती है। शब्द
मात्रेण श्रूयमाणे गीतादिशब्दे प्रथमं सामान्यमात्रोत्प्रेआदि अर्थ में छह प्रकार (पांच इन्द्रिय और एक मन)
क्षायामवग्रहः, 'किमयं शब्दः, अशब्दो वा ?' इत्याद्यका उपयोग होता है ।
प्रेक्षाया त्वीहा, शब्दनिश्चये पुनरपायः, तदनन्तरं तु जैसे अविशुद्ध चक्षुष्मान् को मंद, मंदतर प्रकाश में
धारणा । एवं देवतादिरूपे, कपरादिगन्धे। रूप की उपलब्धि अस्पष्ट होती है, वैसे ही असंज्ञी संमूच्छिम पंचेन्द्रिय को अर्थ की उपलब्धि अस्पष्ट होती
(विभा २९४ मवृ पृ १४७)
___ इन्द्रियों की प्रवत्ति के पश्चात मन की प्रवत्ति होती है, क्योंकि क्षयोपशम की मंदता के कारण उसमें मनोद्रव्य
है. किन्तु स्वप्न आदि में इन्द्रियव्यापार नहीं होता, को ग्रहण करने की शक्ति भी अत्यल्प होती है। जैसे मूच्छित व्यक्ति का शब्द आदि अर्थों का ज्ञान
केवल मन की स्वतंत्ररूप से प्रवृत्ति होती है। मन्यअव्यक्त होता है, वैसे ही प्रकृष्ट ज्ञानावरण के उदय
मान शब्द आदि विषयों में मन के अवग्रह, ईहा, अवाय के कारण एकेन्द्रिय जीवों का ज्ञान अव्यक्त होता है।
और धारणा--ये चारों होते हैं। इनकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि जीवों का ज्ञान शुद्धतर,
स्वप्न में श्रयमाण गीत के शब्द में मन सामान्य रूप शुद्धतम होता है । मानसिक प्रकाश के अभाव में अर्थ से उत्प्रेक्षा करता है, वह अवग्रह है। यह शब्द है या की उपलब्धि मंद, मंदतर होती चली जाती है -
अशब्द ? --- इस प्रकार की उत्प्रेक्षा ईहा है। शब्द के प्राणी अर्थोपलल्धि के प्रकार
निश्चय में अपाय और तत्पश्चात् धारणा होती है। गर्भजपंचेन्द्रिय विशुद्धतर
इसी प्रकार स्वप्न में देवता आदि के रूप में, कर्पूर सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय अविशुद्ध
आदि की गंध में, आम्र आदि के रस में, शरीर आदि के चतुरिन्द्रिय अविशुद्धतर
स्पर्श में मन के अवग्रह आदि भेद प्रवृत्त होते हैं । त्रीन्द्रिय
उससे अविशुद्धतर __ बन्द कपाट वाले अधकारपूर्ण कक्ष में यदि कोई घटना एकेन्द्रिय अविशुद्धतम
घटित होती है तो उसकी जानकारी के लिए इन्द्रियां तुल्ले छेयगभावे जं सामत्थं तु चक्करयणस्स । प्रवृत्त नहीं होतीं। ऐसे स्थान मनोव्यापार के विषय बनते तं तु जहक्कमहीणं न होइ सरपत्तमाईणं ।। ईय मणोविसईणं जा पड़या होइ उग्गहाईस् ।
मन के प्रायोग्य द्रव्य मनन से पूर्व मनोद्रव्य कहलाते तुल्ले चेयणभावे असण्णीणं न सा होइ ।।
हैं । मनन काल में उनकी संज्ञा है मन। (द्र. आत्मा ) (विभा ५१३,५१४) मन अथवा ज्ञान का न्यूनतम विकास एकेन्द्रिय में तथा
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