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भिक्षु
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भूतिप्रज्ञ
द्रव्य भिक्ष
भावभिक्ष मिच्छादिट्टी तस-थावराण पूढवादि-बदियादीणं । संवेगो निव्वेगो विसयविरागो सूसीलसंसग्गी । णिच्चं वधकरणरता अबंभचारी य संचइया ।। आराधणा तवो णाण दंसण चरित्त विणओ य ।। दुपय-चतुप्पय-धण-धण्ण-कुविय
खंती य मद्दवऽज्जव विमुत्तया तिग-तिगपरिग्गहे निरता।
तह अदीणय तितिक्खा । सच्चित्तभोति पयमाणगा य उहिट्रभोती य ।। आवस्सगपरिसुद्धी य होंति भिक्खुस्स लिंगाणि ।। करणतिए जोगतिए सावज्जे आयहेतु पर उभए ।
(दनि २४७,२४८) अट्ठा-पुणटुपवत्ते ते विज्जा दव्यभिक्ख त्ति ।।
संवेग, निर्वेद, विषय-त्याग, सुशील-संसर्ग, आरा
(दनि २३७-२३९) धना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, क्षांति, मार्दव, जो मांगकर तो खाता है पर मिथ्यादष्टि है, त्रस
आर्जव, विमुक्तता, अदीनता, तितिक्षा, आवश्यकशुद्धिस्थावर जीवों का नित्य वध करने में रत है, अब्रह्म- ये भिक्ष के लिंग हैं। चारी है, संचय करने वाला है, परिग्रह में मन, वचन,
भिक्षु को जात्यस्वर्ण की उपमा काया और कृत, कारित, अनुमोदन रूप से निरत
विसघाति रसायण मंगलत्त विणिए पयाहिणावत्ते । आसक्त है, सचित्तभोजी है, स्वयं पकाने वाला है,
गुरुए अडज्झऽकुच्छे अट्ठ सुवण्णे गुणा भणिता ।। उद्दिष्ट भोजी है, तीन करण और तीन योग से स्व और
चतुकारणपरिसुद्धं कस-छेदण-ताव-तालणाए य । पर के लिए सावध प्रवृत्ति करता है तथा अर्थ-अनर्थ पाप
जं तं विसघाति-रसायणादि गुणसंजुतं होति ।। में प्रवृत्त है, वह द्रव्य भिक्षु है।
तं कसिणगुणोवेतं होति सुवणं, सेसयं जुत्ती । दबभिक्ख दुविहो, तं जहा-आगमतो णोआगमतो
न य नाम-रूवमत्तेण एवमगुणो भवति भिक्खू ।। य । आगमतो जाणते अणु व उत्ते। णोआगमतो तिविहो,
(दनि २५०-२५२) तं जहा -जाणगसरीरदवभिक्खु भवियसरीरदव्वभिक्खू जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तो दवभिक्खू । जाणग
• विष की घात करने वाला, रसायन, मांगलिक,
विनयी-लचीला, दक्षिणावर्त्त, भारी, न जलनेसरीरभवियसरीरवतिरित्तो दवभिक्ख तिविहो, तं जहाएगभवियो बद्धाउओ अभिमुहणामगोतो। जो अणंतरं
वाला, काटरहित-इन आठ गुणों से युक्त स्वर्ण ही उन्वट्टिऊणं भिक्ख भविस्सति सो एगभविओ । भिक्खूसु
असली स्वर्ण होता है। जेण आउयं निबद्धं सो बद्धाउओ । जेण पदेसा निच्छूढा
० जो कष, छेद, ताप और ताडन-इन चार परीसो अभिमुहनामगोतो। (दअचू पृ २३१)
क्षाओं में विषघाती आदि गुणों से संयुक्त ठहरता है, द्रव्यभिक्ष के दो प्रकार हैं
वह भाव सुवर्ण-असली सुवर्ण है। १. आगमतः -भिक्ष शब्द के अर्थ का ज्ञाता किन्तु ० जिसमें सोने की युक्ति-रंग आदि होते हैं, जो नाम अनुपयुक्त।
और रूप से तो जात्य स्वर्ण के सदृश है, किंतु जो २. नोआगमत: -- इसके तीन भेद हैं--ज्ञशरीर, भव्य- कसौटी पर अन्य गुणों से खरा नहीं उतरता, वह शरीर और तद् व्यतिरिक्त । तदव्यतिरिक्त के तीन यौगिक स्वर्ण स्वर्ण नहीं होता। इसी प्रकार जो प्रकार हैं
केवल नाम और वेष से भिक्षु है, किन्तु भिक्षु के १. एकभविक-जो इस विवक्षित वर्तमान भव के
गुणों से संयुक्त नहीं है, वह सच्चा भिक्षु नहीं है। पश्चात् अगले जन्म में भिक्षु होगा।
भावभिक्ष को जीवन चर्या (द्र. श्रमण)। २. बद्धायुष्क -जिसने वर्तमान में भिक्षुभव का आयुष्य
भूतिप्रज्ञ---सत्यप्रज्ञ, प्रचुर प्रज्ञावान् । बांध लिया है। ३. अभिमुखनामगोत्र- भावी जन्म की अत्यंत निकटता। भूतिर्मङ्गलं वृद्धी रक्षा चेति वृद्धाः । प्रज्ञायतेऽनया
जब तक पंचेन्द्रिय जाति आदि कर्म उदय में नहीं वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा । ततश्च भूति:-मङ्गलं सर्वमंगलोआते, अन्तमहर्त पश्चात् अवश्य उदय में आयेंगे, वह त्तमत्वेन वृद्धि, विद्धि विशिष्टत्वेन रक्षा वा प्राणिरक्षअभिमुखनामगोत्र है।
कत्वेन प्रज्ञा-बुद्धिरस्येति भूतिप्रज्ञः । (उशावृ प ३६८)
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