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अंगबाह्य
० परिभाषा
• प्रकार और परिचय ८. प्रकीर्णक
९. चूला
१०.
अंगबाह्य और पूर्वधर
१. अंगबाह्य की परिभाषा
स्थविरैर्भद्रबाहुस्वामिप्रभृतिभिराचार्यैरुपनिबद्धं तदनङ्गप्रविष्टम् । तच्चावश्यक निर्युक्त्यादि । अथवा..... गणधर - प्रश्नव्यतिरेकेण शेषकृत प्रश्नपूर्वकं वा भगवतो मुत्कलं व्याकरणं, तदधिकृत्य यन्निष्पन्नं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादि, तदनंगप्रविष्टं यच्च वा गणधरवचांस्येवोपजीव्य दृब्धमावश्यकनिर्युक्त्यादि पूर्वस्थविरैस्तदनङ्गप्रविष्टम् । यदि वा यत् सर्वतीर्थ करतीर्थेष्वनियतं तदनङ्गप्रविष्टम् । ( आवमवृप ४८ ) आचार्य भद्रबाहु स्वामी आदि स्थविरों द्वारा रचित आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रंथ अनंगप्रविष्ट हैं । अथवा
गणधरों के प्रश्नों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के प्रश्नों का जो समाधान तीर्थंकर ने दिया, उस आधार पर जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि की रचना हुई । यह अनंग - प्रविष्ट है । अथवा
गणधरवाणी के उपजीवी पूर्व स्थविरों द्वारा संदृब्ध आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रंथ अनंगप्रविष्ट हैं । अथवा
सब तीर्थंकरों के तीर्थों में जो अनियत श्रुत है, वह अनंगप्रविष्ट है ।
द्वादशाङ्गात्मकस्य श्रुतपुरुषस्य व्यतिरेकेण स्थितमङ्गबाह्यत्वेन व्यवस्थितं तदनङ्गप्रविष्टम् । अथवा ( गणधरान् विहाय ) शेषैः श्रुतस्थविरैस्तदेकदेशमुपजीव्य विराचितं तदनङ्गप्रविष्टम् । अथवा यद् श्रुतमनियतं तदनङ्ग प्रविष्टम् । ( नन्दीमवृप २०३ ) बारह अंगों वाले श्रुतपुरुष ( द्वादशांगी) के अतिरिक्त जो बाह्य अंगों के रूप में व्यवस्थित है, वह अनंगप्रविष्ट : है । अथवा गणधरों के अलावा शेष श्रुतस्थविरों द्वारा रचित शास्त्र अनंगप्रविष्ट है । अथवा अनियतश्रुत अनंगप्रविष्ट है ।
२. अंगबाह्य की रचना का उद्देश्य
जं पुण अण्णेहिं विसुद्धागमबुद्धिजुत्ते हि थेरेहि अप्पामया अप्पबुद्धिसत्तीणं च दुग्गाहकं ति गाऊण तं चेव आयाराइसुयणाणं परंपरागतं अत्थतो गंथतो य
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कालिकश्रुत
अब ति काऊ अणुकंपाणिमित्तं दसवेतालियमा दि परूवियं । तं अणेगभेदं अगंगपविट्ठ । ( आवचू १ पृ ८ )
परम्परा से प्राप्त आचारांग आदि श्रुतज्ञानराशि अर्थतः और ग्रन्थतः बहुत विशाल है। वह अल्प आयुष्य, अल्पमति और अल्पशक्ति वाले मनुष्यों के लिए दुर्ग्राह्य है । यह जानकर उनकी अनुकम्पा के लिए गणधरों से अतिरिक्त विशुद्ध आगमज्ञान से सम्पन्न स्थविरों ने दशवैकालिक आदि अनेक आगमग्रन्थों की रचना की, अनंगप्रविष्ट है ।
३. अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य की भेदरेखा गणहर-थेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा । धुवचलविसेसओ वा अंगाणंगे नाणत्तं ॥ ( विभा ५५० )
जो गणधरकृत है, आदेश - त्रिपदी से निष्पन्न है तथा नियत है, वह अंगप्रविष्टश्रुत है ।
जो स्थविरकृत है, मुक्त प्रतिपादन से गृहीत है तथा अनियत है, वह अंगबाह्य ( अनंगप्रविष्ट ) श्रुत है । ४. अंगबाह्य के प्रकार
अंगबाहिर दुविहं पण्णत्तं तं जहा - आवस्सय व आवस्यवइरित्तं च । ( नन्दी ७४)
अंगबाह्य के दो प्रकार हैं-- १. आवश्यक २. आवश्यक - व्यतिरिक्त ।
५. आवश्यकव्यतिरिक्त के प्रकार
आवस्यवइरितं दुविहं पण्णत्तं तं जहा कालिय च उक्कालियं च । ( नन्दी ७६) आवश्यकव्यतिरिक्त के दो प्रकार हैं- १. कालिक २. उत्कालिक ।
६. कालिकत की परिभाषा
कालिय जं दिणरातीणं पढिज्जति ।
पढमचरिमपो रिसीसु ( नन्दीच पृ ५७ )
श्रुत दिन और रात के प्रथम और अन्तिम प्रहर में पढ़ा जाता है, वह कालिकश्रुत है ।
परिमाण
कालियसुयपरिमाणसंखा अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघाय संखा पयसंखा पायसंखा गाहासंखा सिलोगसंखा वेढसंखा निज्जुत्तिसंखा अणु योगदारसंखा उद्देसगसंखा अज्झयणसंखा सुयबंधसंखा अंगसंखा । ( अनु ५७१ )
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