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अंगप्रविष्ट
आयारंमि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भन्नइ पढमं गणिट्ठाणं ॥ ततश्च गणीनां पिटकं गणिपिटकं परिच्छेदसमूहः इत्यर्थः । ( नदीम प १९३ )
जो गण या गच्छ का अधिपति होता है, वह गणी - आचार्य कहलाता है । गणी का पिटक - सर्वस्व गणिपिटक है । अथवा गणी का अर्थ है -- परिच्छेद, अध्याय, शास्त्रविशेष |
श्रमणधर्म ज्ञात हो जाता को आचारांगधर कहा
आचारांग के अध्ययन से है । आचारांग के धारक मुनि जाता है । यह पहला गणिस्थान अर्थात् द्वादशांगी का पहला परिच्छेद
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इस आधार पर गणिपिटक का अर्थ है - परिच्छेदों का समूह ।
६. द्वादशांग हो श्रुतज्ञान
भावे खओवसमिए दुवाल संगंपि होइ सुयनाणं । ( आवनि १०४ )
यदेव जिनप्रणीतप्रवचनार्थपरिज्ञानं तदेव परमार्थतः श्रुतज्ञानं न शेषम् । ( नन्दीवृप २५० )
वह क्षायोपशमिक भाव
श्रुतज्ञान द्वादशांगात्मक है । है । अर्हत् द्वारा प्रणीत प्रवचन के है, वही परमार्थतः श्रुतज्ञान है, शेष नहीं ।
अर्थ का जो परिज्ञान
७. द्वादशांग और श्रुतपुरुष
पुरुषस्य द्वादशाङ्गानि भवन्ति, तद्यथा द्वो पादौ द्वे जङ्घे द्वे ऊरुणी द्वे गात्रार्द्ध द्वौ बाहू ग्रीवा शिरश्च, एवं श्रुतरूपस्यापि परमपुरुषस्याऽऽचारादीनि द्वादशाङ्गानि क्रमेण वेदितव्यानि -
'पाददुगं जंघोरू गायदुगद्धं तु दो य बाहू य । गीवा सिरं च पुरिसो बारस अंगो सुयविसिट्ठी ॥ श्रुतपुरुषस्याङ्गेषु प्रविष्टमङ्गप्रविष्टम् अङ्गभावेन व्यवस्थितमित्यर्थः । (नन्दीमवृप २०३ )
जैसे पुरुष के हाथ-पैर आदि बारह अंग होते हैं, वैसे ही श्रुतरूप परम पुरुष के आचार आदि बारह अंग । जो श्रुतपुरुष के अंगरूप में व्यवस्थित है, वह अङ्गप्रविष्ट है ।
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पुरुष के अंग दो चरण
दो जंघा दो ऊरु
उदर, पीठ
भुजाद्वय
ग्रीवा
सिर
द्वादशांग के विषय
श्रुतपुरुष के अंग आचार, सूत्रकृत स्थान, समवाय
भगवती, ज्ञातधर्मकथा
उपासकदशा, अन्तकृतदशा
अनुत्तरोपपातिकदशा,
प्रश्नव्याकरण
विपाकश्रुत दृष्टिवाद
८. द्वादशांग की शाश्वतता
भवद
इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ । भुवि च य, भविस्सइ य । धुवे नियए सासए अक्खए अव्वए अट्ठिए निच्चे । ( नन्दी १२६ ) द्वादशांग गणिपिटक कभी नहीं था, कभी नहीं है और कभी नहीं रहेगा ऐसा नहीं है । वह था, है और रहेगा । वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है ।
C. द्वादशांग की पौरुषेयता
शास्त्रं वचनात्मकम् । वचनं तात्वोष्ठपुटपरिस्पन्दादिरूपपुरुषव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधायि । न खलु पुरुषव्यापारमन्तरेण वचनमाकाशे ध्वनदुपलभ्यते ।
( नन्दीमवृप १६ )
शास्त्र वचनात्मक है । वचन तालु, ओष्ठ आदि के परिस्पंदन से उत्पन्न होता है। पुरुष की वाप्रवृत्ति के साथ उसका अन्वयव्यतिरेकी संबंध है - जब पुरुष में तालु, ओष्ठ आदि की प्रवृत्ति होती है, तब वचन उत्पन्न होता है, जब पुरुष की प्रवृत्ति नहीं होती, तब वह उत्पन्न नहीं होता ।
पुरुष की प्रवृत्ति के बिना वचन आकाश में ध्वनित नहीं होता ।
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१०. द्वादशांग के विषय
वालसंगे गणिfish अनंता भावा, अनंता अभावा, अनंता हेऊ, अनंता अहेऊ, अनंता कारणा, अनंता अकारणा, अनंता जीवा, अनंता अजीवा, अनंता भवसिद्धिया, अनंता अभवसिद्धिया, अनंता सिद्धा, अनंता असिद्धा पण्णत्ता । ( नन्दी १२४ )
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