________________
पौरुषी
४४७
प्रत्याख्यान
४. एकाशन-दिन में एक स्थान पर बैठकर एक बार सूर्योदय होने पर नमस्कारसहिता में अशन, पान, से अधिक भोजन नहीं करना ।
खाद्य, स्वाद्य-इस चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान किया ५. एकस्थान-दिन में एक समय एक आसन में एक जाता है । इसके दो अपवाद हैं - बार से अधिक भोजन नहीं करना। इसमें शरीर १. अनाभोग-'नमो अरहताणं ...' इस प्रकार नमस्कार का संकोच-विकोच करना भी वजित है।
मंत्र का उच्चारण कर नवकारसी को पूरा किया ६. निविगय-दिन में एक समय, एक बार से अधिक जाता है। अत्यंत विस्मृति होने पर नमस्कार का
भोजन नहीं करना । भोजन में दूध, दही आदि सभी उच्चारण किये बिना ही मुंह में कवल लिया, किंतु विकृतियों का परिहार करना। छाछ, रोटी, चने याद आते ही उसे मुंह से निकालकर 'खेलमल्लक' में जैसे पदार्थों के अतिरिक्त सरस पदार्थों का सेवन डाल देने पर तथा हाथ का कवल पात्र में डाल देने नहीं करना।
पर और नमस्कारपूर्वक पुन: उस कवल को खाने ७. आयंबिल-दिन में एक समय, एक बार केवल एक पर त्याग का भंग नहीं होता।
धान्य के अतिरिक्त कुछ नहीं खाना। उसमें नमक, २. सहसाकार-अकस्मात् मुंह में कवल लेने पर, पुनः मसाले, घी आदि कुछ भी नहीं होने चाहिए।
निकालकर नमस्कारपूर्वक खाने से त्याग का भंग ८. उपवास-एक दिन के लिए पानी के अतिरिक्त सब नहीं होता। ऐसा करने से आहार की अभिलाषा प्रकार के खाद्य-पेय पदार्थों का परिहार करना । का छेद और निर्जरा होती है। यह तिविहार उपवास का क्रम है। चौविहार पौरुषी उपवास में पानी नहीं पिया जाता। आगम साहित्य
सूरे उग्गए पोरिसिं पच्चक्खाइ चउन्विहंपि आहारं में उपवास के लिए 'चउत्थभत्त' शब्द प्रयुक्त हुआ -असणं पाणं खाइमं साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसा
गारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं सव्वसमा९. दिवसचरिम -एक घण्टा दिन रहते-रहते भोजन- हिवत्तिआगारेणं वोसिरह ।
(आव ६२) पानी से निवृत्त होना, दूसरे दिन सूर्योदय तक कुछ
पुरुषनिष्पन्ना पोरुषी, जदा किर चउब्भागो दिवसस्स भी नहीं खाना ।
गतो भवति तदा सरीरप्पमाणच्छाया भवति, तीसे छ १०. अभिग्रह --विशेष प्रतिज्ञा की संपूति होने से पहले
आगारा। भोजन नहीं करना। .
""पच्छण्णातो दिसातो मेहेहिं रएहिं रेणुणा पव्वएण नमस्कारसहिता
वा पुण्णे त्ति कए पजिमितो होज्जा, जाहे णायं ताहे ठाति, सूरे उग्गए नमुक्कारसहियं पच्चक्खाइ चउबिहंपि जं मुहे तं खेल्लमल्लए, जं लंबणे तं पत्ते, पुणो संदिसाआहारं - असणं पाणं खाइमं साइम, अन्नत्थणाभोगेणं वेति मिच्छादुक्कडन्ति करेति, जेमेति, अह एवं न करेति सहसागारेणं वोसिरइ।
(आवास) तहेव जेमेति तो भग्गं । दिसामुढो ण जाणहिति हेमंते णमोक्कारं काऊणं जेमेउं वदति तम्हा जेमणवेलाए जहा पोरिसी, जाणति अवरण्हे वट्टइत्ति । साहवयणेणं भाणियव्वं-नमो अरहंताणं मत्थएण वंदामो खमा- अन्ने साहू भणंति उग्घाडा पोरुसी, सो जेमेत्ता मिणति समणा ! णमोक्कारं पारेमित्ति ।
अद्धजिमिते वा अण्णे मिणति तेण से कहियं जहा ण परिअणाभोगो णाम एकान्तविस्मृति:, विस्सरिएणं णमो- तित्ति, तहेव ठातितव्वं । समाधी णाम तेण य पोरुसी क्कारं अकाऊणं मूहे छूट होज्जा, संभरिते समाणे मुहे- पच्चक्खाया, आसुक्कारियं दुक्खं उप्पन्नं तस्स अन्नस्स वा, तणगं खेलमल्लए ज हत्थे तं पत्ते पच्छा भुंजे, णमोक्कारं तेण किंचि कायव्वं तस्स, ताहे परो विज्जेज्जा तस्त वा काऊणं जेमेति तो न भग्गं । सहसाकारे णाम सहसा मुहे पसमणणिमित्तं पाराविज्जति ओसह वा दिज्जति, एत्थंपक्खितं, छडुति, जाणतेवि तहेव विगिचित्ता णमोक्कारं तरा णाए तहेव विवेगो। (आव २ पृ ३१५,३१६) काऊणं भुंजति पच्छा, एवं पि किर जीवो आहाराभिमुहो सूर्योदय होने पर पौरुषी (प्रहर) में अशन, पान, णियत्तिओ भवति, तेण तण्हाच्छेदेण णिज्जरा ।
खाद्य, स्वाद्य-इस चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान किया (आव २ पृ ३१५) जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org