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परिषद्
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परीत
जाता । एक बार भेरी-रक्षक ने धन के लोभ से भेरी के ताए ण कहेतव्वं, ण केवलं पच्चक्खाणं सव्वमवि आवअंश को बेच डाला और दूसरे चंदन के टुकड़े से उस पर स्सयं सव्वमवि सूयणाणं । (आवहाव २५२४८) पेबंद लगादी। अब उस भेरी का शब्द अप्रभावी हो
परिषद् (श्रोता) के अनेक प्रकार हैं-उपस्थितगया।
अनुपस्थित, सम्यग् उपस्थित-मिथ्या उपस्थित, भावित___इसी प्रकार कुशिष्य सूत्र और अर्थ को परमत के
अभावित, विनीत-अविनीत, व्याक्षिप्त-अव्याक्षिप्त, अर्थों से मिश्रित कर उसे विकृत कर डालता है । सुशिष्य उपयुक्त-अनुपयुक्त । इनको परस्पर संयुक्त-वियुक्त करने अनुयोग को यथावत् सुरक्षित रखता है।
पर चौसठ विकल्प बनते हैं। उनमें पहला विकल्प हैआभीरी का दृष्टांत
उपस्थित, सम्यक उपस्थित, भावित, विनीत, अव्यामुक्कं तया अगहिए दुपरिग्गहियं कयं तया कलहो ।
क्षिप्त और उपयुक्त (दत्तचित्त)--यह प्रथम परिषद् ही पिट्टण-अइचिरविक्कय गएसू चोरा य ऊणग्घे ॥
प्रत्याख्यान, आवश्यक सूत्र अथवा सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को मा निण्हव इय दाउं उवजूज्जिय देहि किं विचितेसि ।
ग्रहण करने के योग्य है, शेष तिरसठ प्रकार की परिषद वच्चामेलियदाणे किलिस्ससी तं च हं चेव ।। अयाग्य है।
__(विभा १४८०, १४८१) परिहारविशुद्धि-परिहार' तप की विशिष्ट अहीर पति-पत्नी घी बेचने नगर में गये ।
साधना का उपक्रम । चारित्र असावधानी के कारण घी का एक घड़ा फूट गया। अहीर
का एक प्रकार। दंपती में कलह हुआ। पति-पत्नी एक दूसरे पर आरोप
(द्र. चारित्र) प्रत्यारोप लगाने लगे। घी की विक्रय बेला बीत गई।
परीत–सीमाकरण। घी को कम मूल्य में बेचकर जब वे घर लौटने लगे तब रात्रि में चोरों ने उन्हें लूट लिया।
परीत्ता:-प्रत्येक शरीरिणः परीत्तीकृतसंसारा वा । - इसी प्रकार कुशिष्य अपने गुरु पर सूत्रार्थ विषयक
(आवमवृ प ४२) मिथ्या आरोप लगाता है और पूछने पर कहता है-गुरु परीत के दो अर्थ हैं-प्रत्येक शरीरी और परीत ने मुझे इसका अर्थ यही बताया था। इस स्थिति में गुरु संसारी । और शिष्य-दोनों क्लेश पाते हैं।
परीत संसारी इसके प्रतिपक्ष में घी का घड़ा फूट जाने पर अहीर
जिणवयणे अणरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण । और अहीरी ने अपना ही प्रमाद माना। कलह नहीं हुआ।
अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी ।। समय पर घी बिक गया । बहुत लाभ हुआ।
(उ ३६/२६०) इसी प्रकार गुरु-शिष्य एक दूसरे पर आरोप-प्रत्या
जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का रोपन कर, एक दूसरे के प्रमाद की अवगणना करते
भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट हए बर्ताव करते हैं तो विवाद नहीं होता, क्लेश नहीं
होकर परीत-संसारी (अल्प जन्म-मरण वाले) हो जाते होता। ४. प्रत्याख्यान और श्रुतग्रहण योग्य परिषद्
परितः-समस्तदेवादिभावाल्पतापादनेन समन्तात् सोउं उवट्ठियाए विणीयवक्खित्ततदुवउत्ताए। खण्डितः परिमित इति यावत् स चासौ संसारश्च स विद्यते एवं विहपरिसाए पच्चक्खाणं कहेयव्वं ॥ येषां तेऽमी परीतसंसारिणः--कतिपयभवाभ्यन्तरमूक्ति(आवनि १६१८) भाजः ।
(उशावृ प ७०८) उवठियसम्मोवट्ठियभावितविणया य होइ वक्खित्ता । जिसने देव, मनुष्य आदि भवों को सीमित कर दिया उवउत्तिगा य जोग्गा सेस अजोगातो तेवट्रि॥ है, वह परीत संसारी कहलाता है। कतिपय भवग्रहण के एतं पच्चक्खाणं पढमपरिसाए कहेज्जति, तव्वतिरि- पश्चात् वह मुक्त हो जाता है।
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