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द्रव्य
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द्वीप
के रूप में उसका उत्पाद होता है, अजीवत्व की अपेक्षा कालतो सट्ठाणं पडुच्च समओ सुहुमो। भावतो सट्ठाणं से वह अवस्थित रहता है। स्वर्ण की अंगूठी को भांज पडुच्च एगगुणकालतो सुहमो। परद्वाणं पडुच्च दव्वातो कर कुंडल बनाने पर अंगूठी का नाश और कुंडल का भावो सुहुमतरागो। परमाणुपोग्गलो अणंतगुणकालोऽवि उत्पाद होता है तथा स्वर्णद्रव्यत्व अवस्थित रहता है। अत्थि, अतो दव्वेहितो भावो सुहुमयरागो। मुत्तदव्व
जीवमजीवे रूवमरूवी सपएसमप्पएसे अ । भावेहितो अमुत्तभावत्तणेण कालखेत्ता सुहमा, कालतो य जाणाहि दव्वलोगं णिच्चमणिच्चं च जं दव्वं ।। खेत्तं सुहमयरागंति ।
(आवचू १ पृ ४३) (आवभा १९५) स्वस्थान की अपेक्षा सब द्रव्यों में परमाणुपुद्गल, जीव द्रव्य के दो भेद हैं-रूपी (संसारी जीव), क्षेत्रत: एक आकाशप्रदेश, कालतः समय और भावत: अरूपी (सिद्ध जीव)। अजीव द्रव्य के दो भेद हैं-रूपी एक गुण काला सूक्ष्म है। परमाणुपुद्गल अनन्त गुण (पुद्गल), अरूपी (धर्मास्तिकाय आदि)। परमाणु के काला भी होता है, इसलिए परस्थान की अपेक्षा द्रव्य अतिरिक्त सभी द्रव्य सप्रदेशी और अप्रदेशी हैं। द्रव्य से भाव सूक्ष्मतर है। मूर्त द्रव्य के भाव से अमूर्त भाव द्रव्यत्व की अपेक्षा नित्य और पर्याय की अपेक्षा अनित्य आर पयाय का अपेक्षा आनत्य सूक्ष्म है, इसलिए काल और क्षेत्र सूक्ष्म है। काल से क्षेत्र
सूक्ष्मतर है। ८. गुरु और लघु द्रव्य
द्वादशांग--गणधर द्वारा रचित आचार आदि णिच्छयण यस्स णत्थि सव्वगुरुं दव्वं, णावि सव्वलहुं ।
बारह अंग-आगम, गणिपिटक । ववहारणयादेसेण पुण बायरखंधेसु सव्वेसु दोऽवि अस्थि ।
(द्र. अंगप्रविष्ट)
द्वीप-टापू । जहा सव्वगुरू कोडियसिला, सव्वलहू मूलगपत्तं तूलं वा ।
(आवचू १ पृ २९)
द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां स्थानदातृत्वाहाराद्युपष्टम्भहेतुनिश्चय नय की अपेक्षा कोई भी द्रव्य सर्वथा गुरु
त्वलक्षणाभ्यां प्राणिनः पान्तीति द्वीपाः जन्त्वावासभूतऔर सर्वथा लघु नहीं है। व्यवहार नय की अपेक्षा सब
क्षेत्रविशेषाः ।
(अनुमवृ प ८२) बादर स्कन्ध गुरु और लघु-दोनों हैं। जैसे कोटिक
स्थानदान और आहार आदि का उपष्टम्भ- इन दो शिला गुरु है । मूले का पत्र और रूई लघु है।
प्रकारों से जो प्राणियों का पालन-संरक्षण करते हैं, वे
द्वीप-आवासक्षेत्र हैं। जंबू, धातकीखंड, पुष्कर आदि ६. अगुरुलघु पर्याय
द्वीप हैं।
(द्र. लोक) परमाणतो आढत्तं जाव अणंतपदेसितो खंधो एते
विहो य होइ दीवो दव्वदीवो अ भावदीवो य । सुहमा खंधा भण्णं ति। अगरुलहपज्जाया य निच्छयतो
इक्किक्कोऽवि अ दुविहो आसासपगासदीवो अ।। एतेसि भवंति। जे णो गुरू णो लहू ते अगुरुलहु
संदीणमसंदीणो संधिअमस्संधिए अ बोद्धव्वे । पज्जाया भण्णंति । जे पुण सुहमातो अणंतपदेसितातो
आसासपगासे अ भावे दुविहो पुणिक्किक्को ।। आरब्भ अणंताणंतपदेसिया खंधा तेसिं जे पज्जाया ते
(उनि २०६, २०७) गुरुया लहुया य णिच्छयतो णातव्वत्ति ।
संदीणो णाम जो जलेण छादेज्जति, सो ण जीवितत्थ(आवचू १ पृ २९, ३०)
संताणाय । जो पुण सो विच्छिण्णत्तणेण उस्सित्तणेण निश्चयनय की दृष्टि से परमाणु से लेकर सूक्ष्म
य जलेण ण छादेज्जति सो जीवितत्थीणं ताणाय असंदीणो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक अगुरुलघु हैं। जो द्रव्य न गुरु ।
दीवो जहा कोंकणदीवो......"खओवसमियसम्मइंसणदीवो होते हैं और न लघु, वे अगुरुलघु पर्याय वाले होते हैं।
पडिवातित्ति काउं संदीणो असंदीणो तु खायगसम्मइंसणसूक्ष्म अनन्तप्रदेशी स्कन्धों से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशी
दीवो।
(उच पृ ११४, ११५) स्कन्धों के पर्याय गुरुलघु होते हैं ।
संदीयते-जलप्लावनात् क्षयमाप्नोतीति सन्दीन:, १०. द्रव्य-पर्याय की सूक्ष्मता
तदितरस्त्वसन्दीनः ।
(उशावृ प २१२) सट्ठाणं पडुच्च दव्वतो सव्वदव्वाणं परमाणुपोग्गलो प्राकृत शब्द 'दीव' के संस्कृत में दो रूप हैं-द्वीप सुहुमो । खेत्ततो सट्ठाणं पडुच्च एगो आगासपदेसो सुहुमो। और दीप । इसके दो प्रकार हैं-द्रव्य और भाव । द्रव्य
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