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दृष्टिवाद
अनुयोग के प्रकार बाईस सूत्र स्वसमय परिपाटी के अनुसार चतुष्क- अणुत्तरगई य, उत्तर-वेउव्विणो य मुणिणो, जत्तिया नयिक होते हैं।
सिद्धा, सिद्धिपहो जह देसिओ, जच्चिरं च कालं पाओवइस प्रकार पूर्वापर की दृष्टि से अट्ठासी सूत्र हैं। गया, जे जहिं जत्तियाई भत्ताइ छइत्ता अंतगडे मुणिवरुछिन्नछेदनय
त्तमे तम-रओघ विप्पमुक्के मुक्ख मूहमण तरं च पत्ते । जो णयो सुत्तं छिपगं छेदेण इच्छति, जहा–“धम्मो एते अण्णे य एवमाई भावा मूलपढमाणुओगे कहिया । मंगलमुक्किट्ठ" ति सिलोगो सुत्तऽत्थतो पत्तेयं छेदेण
(नन्दी १२०) ठितो, णो बितियादिसिलोगे अवेक्खइ।
मूलप्रथमानुयोग में अर्हत् तीर्थकरों के पूर्वभव, देव
(नन्दीचू पृ ७४) लोकगमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, अभिषेक, राज्य की जो नय एक सूत्र की दूसरे सूत्र से पृथक् व्याख्या श्रेष्ठश्री, प्रव्रज्या और उग्र तप, केवलज्ञानोत्पत्ति, तीर्थकरता है, दूसरे सूत्र से पहले सूत्र को सम्बन्धित नहीं प्रवर्तन, शिष्य, गण, गणधर, साध्वी, प्रवर्तिनी, चतुर्विध करता, वह छिन्नछेदनय है। इन सूत्रों की परस्पर संघ का परिमाण, केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, निरपेक्ष व्याख्या की जाती है। जैसे-धम्मो मंगल- सम्यक्त्व, श्रुतज्ञानी, वादी, उत्तरवैक्रियलब्धिधर मुनि, मुक्किट्ठ-यह श्लोक सूत्र और अर्थ की अपेक्षा से दूसरे जितने अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं, जितने सिद्ध श्लोक से पृथक है-इसकी व्याख्या के लिए दूसरे श्लोकों हुए हैं, जिन्होंने प्रायोपगमन अनशन किया है तथा जितने की अपेक्षा नहीं है।
भक्तों का छेदन (भक्तप्रत्याख्यान) कर जो उत्तम मुनिवर मच्छिन्नछेदनय
मुक्त हुए हैं, तम और रज से विप्रमुक्त होकर अनुत्तर (जो णयो सुत्तं अच्छिण्णं छेदेण इच्छति सो अच्छिण्ण
सिद्धि-पथ को प्राप्त हुए हैं, उनका वर्णन है। छेद णयो) जहा–दुमपुप्फियपढमसिलोगो अत्थतो बिति- तथा इस प्रकार के अन्य भावों का कथन इसमें याइसिलोगे अवेक्खमाणो, बितियादिया य पढम अच्छि- हुआ है। पणच्छेदणताभिप्पाययो भवति । अत्थयो अण्णोण्णमवेक्ख- मूलं-धर्मप्रणयनात्तीर्थकरास्तेषां प्रथमः-सम्यमाणा अच्छिण्णछेदणया। (नन्दी चू पृ ७४) क्त्वावाप्ति-लक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानु. जो नय दूसरे सूत्रों की अपेक्षा रखता हुआ व्याख्या । योगः । मूलप्रथमानुयोगे अर्हतां भगवतां सम्यक्त्वभवाकरता है, वह अच्छिन्न छेदनय है। जैसे-द्रुमपुष्पिका दारभ्य पूर्वभवा देवलोकगमनानि तेषु पूर्वभवेषु देवभवेषु अध्ययन का प्रथम श्लोक (धम्मो...) अर्थतः द्वितीय चायुर्देवलोकेभ्यश्च्यवनं तीर्थकरभवत्वेनोत्पादस्ततो याति लोगों की अपेक्षा रखता है सो प्रलोकभी जन्मानि ततः शैलराजे सुरासुरैविधीयमाना अभिषेका श्लोक की अपेक्षा रखते हैं--यह अच्छिन्नछेदनय का।
इत्यादि।
(नन्दीमवृ प २४२) अभिप्राय है।
धर्म के प्रणेता होने से तीर्थंकर मूल हैं। उनसे ६. अनुयोग के प्रकार
सम्बद्ध अनुयोग मूलप्रथमानुयोग है। इसमें अर्हतों के
पूर्वभव (सम्यक्त्व प्राप्ति वाले भव से लेकर), देवलोकअणुओगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-मूलपढमाणुओगे
गमन, आयु, च्यवन, तीर्थंकरभव-जन्म, मेरु पर्वत पर गंडियाणुओगे य।
(नन्दी ११९)
सर-असुरों द्वारा अभिषेक इत्यादि का वर्णन है। __ अनुयोग दो प्रकार का है - मूलप्रथमानुयोग और कंडिकानुयोग।
कंडिकानुयोग मूलप्रथमानुयोग
गंडियाणुओगे कुलगरगंडियाओ, तित्थयरगंडियाओ, मूलपढाणुओगे णं अरहंताणं भगवंताणं पूव्वभवा. चक्कवट्टिगंडियाओ, दसारगंडियाओ, बलदेवगंडियाओ, देवलोग-गमणाई, आउँ, चवणाई, जम्मणाणि य अभिसेया, वासुदेवगंडियाओ, गणधरगंडियाओ, भद्दबाहगंडियाओ, रायवरसिरीओ, पव्वज्जाओ, तवा य उग्गा, केवलनाण- तवोकम्मगंडियाओ, हरिवंसगंडियाओ, ओसप्पिणीगंडिप्पयाओ, तित्थपवत्तणाणि य, सीसा, गणा, गणहरा, याओ, उस्सप्पिणीगंडियाओ, चित्तंतरगंडियाओ, अमरअज्जा, पवत्तिणीओ, संघस्स चउव्विहस्स जं च परिमाणं नर-तिरिय-निरय-गइ-गमण-विविह-परियट्रणेसु, एवजिण-मणपज्जव-ओहिनाणी, समत्तसूयनाणिणो य, वाई, माइयाओ गंडियाओ आघविज्जति। (नन्दी १२१)
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