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दृष्टिवाद
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सूत्र के निर्वचन तं जहा-पाढो, आगासपयाई, के उभूयं, रासिबद्धं, इनके सूत्र-अर्थ सब विच्छिन्न हैं, गुरुपरम्परा से ही एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, ज्ञातव्य हैं । नंदावत्तं, विप्पजहणावत्तं ।
(नन्दी ९९)
) ५. सूत्र के निर्वचन विप्रहाणश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का है---- १. पाठ ७. त्रिगुण
सिंचइ खरइ जमत्थं तम्हा सूत्तं निरुत्तविहिणा वा । २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह
सूएइ सवइ सुव्वइ सिव्वइ सरए व जेणत्थं ।। ३. केतुभूत ९. संसारप्रतिग्रह
(विभा १३६८) ४. राशिबद्ध १०. नन्द्यावतं
• जो अर्थ का सिंचन/क्षरण करता है, वह सूत्र है। ५. एकगुण ११. विप्रहाणावर्त
० जो अर्थ को सूचित करता है, वह सूत्र है ।
• जो अर्थ को स्रवित करता है, वह सूत्र है। ६. द्विगुण
• जो सुना जाता है, वह सूत्र है। च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म
० जो अनेक अर्थपदों को स्यूत/संयुक्त करता हैचुयअचुयसेणियापरिकम्मे एक्कारसविहे पण्णत्ते,
विशिष्ट संघटना करता है, वह सूत्र है। तं जहा-पाढो, आगासपयाई, केउभूयं, रासिबद्धं,
__ . जो अर्थ का अनुसरण करता है, वह सूत्र है । एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभूयपडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, र नंदावत्तं, चुयअचुयावत्तं ।
(नन्दी १००) च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म ग्यारह प्रकार का है
सुत्ताइ सव्वदव्वाण सव्वपज्जवाण सव्वणताण
सव्वभंगविकप्पाण य दंसगाणि, सव्वस्स य पुव्वगतसुतस्स १. पाठ ७. त्रिगुण
अत्थस्स य सूयग त्ति, अतो ते सूयणत्तातो सुत्ता भणिता । २. आकाशपद ८. केतुभूतप्रतिग्रह
(नन्दीचू पृ ७४) ३. केतुभूत ९. संसारप्रतिग्रह
जिनमें सब द्रव्य, सब पर्याय, सब नय, सब ४. राशिबद्ध १०. नन्द्यावर्त्त
भंगविकल्पों का सूचन है, वे सूत्र हैं। पूर्वगत के समग्र५. एकगुण ११. च्युताच्युतावत
सूत्र और अर्थ के सूचक होने के कारण ये सूत्र कहलाते ६. द्विगुण परिकर्म : नय और सम्प्रदाय
एकार्थक (इच्चेयाइं सत्त परिकम्माइं छ ससमइयाणि सत्त आजीवियाणि) छ चउक्कणयाइं, सत्त तेरासियाई।
"""सुत्तं तंतं गंथो पाढो सत्थं च एगट्टा । (नन्दी १०१)
(आवनि १३०) (ये सात परिकर्म हैं। इनमें प्रथम छह स्वसमय के
सूत्र, तन्त्र, ग्रंथ, पाठ और शास्त्र-ये सूत्र के प्रज्ञापक हैं । सातवां (च्युताच्युतश्रेणिका) परिकर्म आजीवक एकार्थक है ।
सूत्तं भणियं तंतं तणिज्जए तेण तम्मि व जमत्थो । मत का प्रज्ञापक है।) इनमें प्रथम छह परिकर्म चार नयों
गंथिज्जइ तेण तओ तम्मि व तो तं मयं गंथो ।। (संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द) द्वारा व्याख्यात हैं।
(विभा १३८३) सातवां त्रैराशिक-तीन नय वाला है।
जिससे अर्थ विस्तार पाता है, वह तन्त्र/सूत्र परिकर्म के मूल-उत्तर-भेद
है। जिसमें अर्थों का ग्रंथन/गुम्फन होता है, वह परिकम्मसूतं सिद्धसेणियापरिकम्मादिमूलभेदयो ग्रन्थ सत्र है। सत्तविहं, उत्तरभेदतो तेसीतिविहं मातुयपदादी। तं च ..."सासिज्जइ तेण तहिं व नेयमाया व तो सत्थं । सव्वं समूलुत्तरभेदं सुत्तत्थतो वोच्छिण्णं, जहागतसंप्रदातं
(विभा १३८४) वा वच्चं ।
(नन्दीच पृ ७२) जिसमें ज्ञेय अथवा आत्मा की अनुशिष्टि है, वह परिकर्म के मूल भेद सात हैं -सिद्धश्रेणिका परिकर्म शास्त्र है। आदि। उत्तरभेद तिरासी हैं- मातृकापद आदि । अब
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