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ग्रन्थ-परिचय
इसका नाम नन्दी है | आगम संकलन की चौथी वाचना आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के समय में हुई। वे ही नंदी के कर्ता हैं । प्रस्तुत आगम का रचनाकाल वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दी का दसवां दशक है । चूर्णिकार के अनुसार इसके कर्ता दूष्यगण के शिष्य देववाचक हैं। कुछ विद्वान् मानते हैं कि देवद्धगणी का अपर नाम देववाचक था । इसमें प्रारंभ की तीन गाथाओं में महावीर की स्तुति, चौदह गाथाओं में संघ की स्तुति, दो गाथाओं में तीर्थंकरावलि, दो गाथाओं में गणधरावलि, बावीस गाथाओं में स्थविरावलि और शेष की एक गाथा में परिषद् के स्वरूप का प्रतिपादन है। यह प्रश्नोत्तर शैली की रचना है। इसमें पांचों ज्ञान का सांगोपांग वर्णन है। बारह अंगों का स्वरूप निदर्शन इसमें स्पष्टरूप से हुआ है । इसमें १२७ सूत्र और मध्यगत अनेक संग्रहणी गाथाएं हैं ।
इसके मुख्य व्याख्या ग्रन्थ तीन हैं - १. नंदी चूणि, २. नंदी हारिभद्रीया वृत्ति, ३ नंदी मलयगिरीया वृत्ति । जैन विश्व भारती से प्रकाशित 'नवसुत्ताणि' में नंदो के साथ उसके दो परिशिष्ट भी मुद्रित हैं-१. अनुज्ञानन्दी २. योगनन्दी |
चूर्णि
सूत्रानुसारी नन्दी चूर्णि प्राकृत प्रधान है। नंदीगत विषयों का स्पर्श करते हुए कहीं-कहीं विशद व्याख्य' भी की गई है। तीर्थसिद्ध आदि सिद्धों के पन्द्रह प्रकारों की विस्तृत जानकारी इसमें उपलब्ध हैं ।
चूर्णिकार ने केवलज्ञान और केवलदर्शन के प्रसंग में तीन मत उद्धृत किए हैं - १. केवलज्ञान और केवलदर्शन का यौगपद्य । २. केवलज्ञान और केवलदर्शन का क्रमभावित्व । ३. केवलज्ञान और केवलदर्शन का अभेद । उन्होंने दूसरे मत - केवलज्ञान और केवलदर्शन का क्रमभावित्व का समर्थन किया है । इस प्रसंग में ‘विशेषणवती' की चौबीस गाथाएं भी उद्धृत हैं । (चू. पृ २८-३० )
श्रुतज्ञान की विशद विवेचना में 'अक्षर पटल' एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण है । ( चू. पृ. ५२-५६ )
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जिनदासगणी ने सर्वप्रथम नन्दी चूर्णि शक सं. ५९८ में लिखी । ( शकराज्ञो पंचसु वर्षशतेषु व्यतिक्रांतेषु अष्टनवतेषु नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्ता इति चू. पृ: ८३)। इसके अनुसार ई. सन् ६७६ और वि. सं. ७३३ में यह चूर्णि लिखी गई । अनुयोगद्वारचूर्णि (पृ. १) में नंदी चूण का उल्लेख है इसका ग्रंथाग्र १५०० श्लोक है । इस चूर्णि में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का अंतर बहुत सुंदर ढंग से प्रतिपादित है (पृ. ५७ ) । कालिक श्रुत के प्रसंग में अरुणोपपात, उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत आदि ग्रंथों की संक्षिप्त जानकारी भी दी गई है। चूर्णिकार ने प्रकीर्णक श्रुत को भी परिभाषित किया है। इसमें चित्रांतरकंडिका के संदर्भ में पूर्वाचार्यों की २२ गाथाएं उद्धृत हैं, जिनमें वर्णित भगवान् ऋषभ तथा अजित के अंतराल काल में उनके जितने वंशज राजा अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुए तथा मोक्ष में गए, उनकी संख्या का यंत्र भी दिया गया है । (चू. पू. ७७-७९)
वृत्ति
आचार्य हरिभद्रकृत नन्दी वृत्ति भी चूर्णि का अनुसरण करती है। इसमें केवलज्ञान और केवलदर्शन के यौगपद्य उपयोग के समर्थक सिद्धसेन आदि का क्रमिक उपयोग के समर्थक सिद्धांतवादी जिनभद्रगण आदि का तथा अभेद के समर्थक वृद्धाचार्यों (सिद्धसेन दिवाकर आदि) का उल्लेख है ।
आचार्य मलयगिरि कृत नन्दी वृत्ति सुस्पष्ट, सुविशद, विस्तृत एवं सरस है । इसमें जीव के अस्तित्व की सिद्धि, शाब्दप्रामाण्य, अपौरुषेय वचन निरास, सर्वज्ञसिद्धि, नैरात्म्यनिराकरण, सांख्यमुक्तिनिरसन, स्त्रीमुक्तिसिद्धि आदि अनेक दार्शनिक चर्चाएं प्रतिपादित हैं ।
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