________________
जीवनिकाय
उनका अन्तर (तेजस्काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल ) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है ।
क्षेत्र
हुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य
सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव समूचे लोक में तेजस्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । ६. वायुकाय की परिभाषा
बायरा ।
( उ ३६ । १११ )
और बादर
वायुः - चलनधर्मा प्रतीत एव स एव काय: - शरीरं येषां ते वायुकायाः । ( दहावृप १३८ ) चलनधर्मा वायु ही जिनका काय - शरीर होता है, उन जीवों को वायुकाय कहते हैं ।
जीवत्वसिद्धि
अत्थि अदिस्सापाइयफरिसणाईणं गुणी गुणत्तणओ । रूवस्स घडोव्व गुणी जो तेसि सोऽनिलो नाम ॥ ( विभा १७४९ )
दुविहा वाउजीवा उ सुहुमा पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए
२८४
Jain Education International
अपरप्पेरियतिरिया नियमिय दिग्गमणओऽणिलो गो व्व । ( विभा १७५८ )
जैसे गाय किसी की प्रेरणा के बिना ही अनियमित तिर्यक् गमन करती है, वैसे ही वायु भी तिर्यग् गति अतः वह सजीव है |
करता
वाऊ चित्तमं मक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्यपरिणं । (द ४ | सूत्र ७ ) शस्त्रपरिणति से पूर्व वायु चित्तवान् ( सजीव ) कहा गया है । वह अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व) वाला है ।
प्रकार
स्पर्श आदि गुणों का गुणी अदृश्य होने पर भी विद्यमान होना चाहिए। क्योंकि गुण गुणी में ही रहते हैं। और गुणी गुणों के कारण ही गुणी कहलाता है । जैसे रूप गुण का गुणी घट है । इसी प्रकार शब्द, कम्प आदि वायु के गुण हैं, अतः इन गुणों का अधिष्ठाता गुणी वायु है ।
वायुकाय की परिभाषा
वायुकायिक जीवों के दो प्रकार हैं सूक्ष्म और बादर । उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त—ये दो-दो भेद होते हैं ।
बादर वायुकाय
दुहा
बायरा तहा । पुणो ॥ ( उ ३६।११७)
बायरा जे उपज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । उकलियामंडलियाघणगुंजा सुद्धवाया य ॥
( उ ३६।११८) उत्कलिकावाता ये स्थित्वा स्थित्वा पुनर्वान्ति । मण्डलिकावाता - वातोलीरूपा । घनवाता - रत्नप्रभाद्यधोवर्तिनां घनोदधीनां विमानानां वाऽऽधारा हिमपटलकल्पा वायवः । गुञ्जावाता – ये गुञ्जन्तो वान्ति ।
शुद्धवाता - उत्कलिकाद्युक्तविशेष विकला मन्दा निलादयाः । संवर्त्तकवाताश्च ये बहिः स्थितमपि तृणादि विवक्षितक्षेत्रान्तः क्षिपन्तीति । ( उणावृप ६९४ ) बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवों के पांच भेद हैं१. उत्कलिका वायु — जो ठहर-ठहर कर चलती है । २. मण्डलिका वायु — जो बवंडर रूप में होती है । ३. घनवायु - जो रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के अधोवर्ती धनोदधि की अथवा विमानों की आधारभूत है । यह बर्फ जैसी सघन होती है ।
४.
गुंजावायु - जो गुञ्जार करती हुई चलती है । ५. शुद्ध वायु - जो मन्द मन्द बहती है । जो वायु घासफूस को बाहर से उड़ाकर भीतर ले जाती है, उसे संवर्तक वायु कहा गया है । एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ ( उ ३६ । १२५ )
वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं !
सचित्त-अचित्त-मिश्र वायु
सवलयघणतणुवाया अतिहिम अतिदुद्दिणे य निच्छइओ । ववहार पायमाई अक्कंतादी य अच्चित्तो ॥ हत्थसयमेग गंता दइउ अचित्तो बिइय संमीसो | तइयंमि उ सच्चित्तो वत्थी पुण पोरिसिदिणेहिं ॥ (ओनि ३६०, ३६१ )
कालो हि द्विविध: - निद्धो लुक्खो य । तत्थ निद्धो तिविहो उक्कोसो मज्झिमो जहण्णो य । तत्थ उक्को - सनिद्धे काले पौरुषीमात्रं कालं यावत् वत्थी वायुणाऽऽ
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org