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जीवनिकाय
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तेजस्काय की परिभाषा
प्रकार
अप्काय की स्थिति दुविहा आउजीवा उ, सुहमा बायरा तहा ।
संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया विय। पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ।।
ठिई पड़च्च साईया, सपज्जवसिया वि य॥ (उ ३६।८४)
(उ ३६।८७) अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं - सूक्ष्म और प्रवाह की अपेक्षा से ये अनादि अनन्त और स्थिति बादर । इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो की अपेक्षा से सादि सान्त हैं। भेद हैं।
आयुस्थिति बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिया । सत्तेव सहस्साइं, वासाणक्कोसिया भवे । सुद्धोदए य उस्से, हरतणू महिया हिमे ॥ आउट्टिई आऊणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । (उ ३६।८५)
(उ ३६।८८) बादर पर्याप्त अप्कायिक जीवों के पांच भेद अप्कायिक जीवों की आयूस्थिति जघन्यतः अन्तहैं -१. शुद्धोदक २. ओस ३. हरतनु ४. कुहासा और मुहूर्त और उत्कृष्टतः सात हजार वर्ष की है। ५. हिम।
कायस्थिति एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । . संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो।।
कायट्ठिई आऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ।। (उ ३६।९१)
(उ ३६।८९) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से
अप्कायिक जीवों की कायस्थिति (निरन्तर उसी उनके हजारों भेद होते हैं।
काय में जन्म लेते रहने की काल-मर्यादा) जघन्यत:
अन्तर्महर्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है। सचित्त-अचित्त-मिथ जल
अन्तरकाल घणउदहीघणवलया. करगसमुद्दद्दहाण बहुमज्झे ।
अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । अह निच्छयसच्चित्तो ववहारनयस्स अगडाइं ॥
विजढंमि सए काए, आऊजीवाण अंतरं ॥ उसिणोदगमणत्ते दंडे वासे य पडिअमेत्ते य ।...
(उ ३६।९०) सीउण्हखारखत्ते अग्गीलोणूसअंबिले नेहे । उनका अन्तर (अप्काय को छोड़कर पुनः उसी काय वक्कंतजोणिएणं......."
में उत्पन्न होने तक का काल) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और (ओनि ३४३, ३४४,३४६) उत्कृष्टतः अनंतकाल का है। घनोदधि, रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के घनवलय, करक क्षेत्र (ओले), समुद्र का मध्यभाग और तालाब का मध्यभाग एगविहमणाणत्ता, सुहुमा तत्थ वियाहिया । निश्चय सचित्त अप्काय हैं ।
सुहमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा ।। कुएं आदि का जल व्यवहार सचित्त अप्काय है।
(उ ३६०८६) जिस उष्ण जल में जब तक दंड अनुवृत्त हो—गहरा सूक्ष्म अप्कायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं । उबाल न आया हो, वह मिश्र अप्काय है। पतितमात्र उनमें नानात्व नहीं होता। वे समूचे लोक में व्याप्त हैं। वर्षा का जल मिश्र अप्काय है।
बादर अप्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। शीत शस्त्र, उष्ण शस्त्र, क्षार, करीष, अग्नि, लवण, ५. तेजस्काय की परिभाषा ऊष, अम्ल और स्नेह-ये अप्कायिक जीवों के शस्त्र हैं। तेज उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव कायः --- शरीरं येषां इनसे उपहत होने पर अप्कायिक जीव अचित्त हो जाते ते तेज:कायाः ।
(दहाव प १३८) उष्ण लक्षण तेज ही जिनका काय -- शरीर होता है, उन जीवों को तेजस्काय कहते हैं।
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