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गणधर
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गणधर : एक परिचय समुद्घात की विधि
___गणधर-१. तीर्थंकर द्वारा स्वयं अनुज्ञात गण को दंड कवाडे मंथंतरे असाहरणया सरीरत्थे।
धारण करने वाले--'तित्थगरेहि भासाजोगनिरोहे सेलेसी सिझणा चेव ॥
सयमणुन्नातं गणं धारेंति त्ति गणहरा।' (आवनि ९५५)
(आवचू १ पृ८६) केवली आत्मप्रदेशों को प्रथम चार समय में क्रमश:
२. सूत्रागम के कर्ता-'मूलसूत्रकर्तारो दंड, कपाट, मंथान और मंथान्तर (अन्तरावगाह) के
गणधरा उच्यन्ते ।' (आवहाव १ पृ९४) आकार में पूरे लोक में फैलाता है, पांचवें, छठे, सातवें,
१. गणधर : एक परिचय आठवें समय में पुनः प्रतिलोम क्रम से आत्मप्रदेशों का
२. गणधर : जिज्ञासा समाधान संहरण करता है। समुद्घात के समय वचनयोग नहीं
३. गणधरों के अतिशेष रहता, तत्पश्चात् वह शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर सिद्ध
४. गणधरों द्वारा आगम (द्वादशांग) रचना हो जाता है।
* द्वादशांग
(द्र. अंगप्रविष्ट) न किर समुग्घायगओ मण-वइजोगप्पओयणं कुणइ।
५. आगम रचना का प्रयोजन ओरालियजोगं पुण जंजइ पढमढमे समए । * गणधरों द्वारा पूर्वो की रचना (द्र. पूर्व) उभयव्वा वाराओ तम्मीसं बीय-छट्ठ-सत्तमए। ६. गणधर और धर्मदेशना ति-चउत्थ-पंचमे कम्मयं तु तम्मत्तचेट्ठाओ।
२. गण और गणधर (विभा ३०५४,३०५५)
८. गणधर सुधर्मा की शिष्य परम्परा केवली समुद्घात में मनयोग और वचनयोग का
* तीर्थकरों की गणधर-सम्पदा (द्र. तीथंकर) व्यापार नहीं होता । पहले और आठवें समय में औदारिक
* गणधर तीर्थ है
(द्र. तीर्थ) काययोग होता है। दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र और तीसरे, चौथे, पांचवें समय में गणधर : एक परिचय कार्मणकाययोग होता है।
पढमित्थ इंदभूई बीए पुण होइ अग्गिभूइ त्ति । क्षायिक भाव-कर्मों के क्षय से होने वाली आत्मा तइए य वाउभूई तओ वियत्ते सुहम्मे य ।। की अवस्था। (द्र. भाव)
मंडिय-मोरियपूते अकंपिए चेव अयलभाया य ।
मेयज्जे य पहासे य गणहरा हंति वीरस्स ॥ क्षायिक सम्यक्त्व-अनन्तानुबन्धी चतुष्क और
(नन्दी गाथा २०, २१) दर्शन मोहनीय त्रिक-इन सात
ग्यारह गणधर प्रकृतियों के क्षय से प्राप्त होने
१. इन्द्रभूति
७. मौर्यपुत्र वाला सम्यक्त्व। (द्र. सम्यक्त्व)
२ अग्निभूति
८. अकंपित क्षायोपशमिक भाव-चार घात्यकर्मों के विपाक- ३. वायुभूति
९. अचलभ्राता वेदन के अभाव से होने वाली ४. व्यक्त
१०. मेतार्य आत्मा की अवस्था । (द्र. भाव)
५. सुधर्मा
११. प्रभास
६. मंडित क्षीणमोह गुणस्थान-जिसका मोह क्षीण हो
स्थान जाता है, उस प्राणी की
मगहा गोब्बरगामे जाया तिण्णेव गोयमसगोत्ता। आत्मविशुद्धि, बारहवां गुण
कोल्लागसन्निवेसे जाओ विअत्तो सुहम्मो य ।। स्थान। (द्र. गुणस्थान) मोरीयसन्निवेसे दो भायरो मंडिमोरिया जाया । क्षुल्लक भव-सबसे छोटा भव २५६ आवलिका
अयलो य कोसलाए महिलाए अकंपिओ जाओ। का होता है-दो य सया छप्पन्ना तुंगीयसन्निवेसे मेयज्जो वच्छभूमिए जाओ। .. आवलियाणं तु खुड्डुभवमाणं ।
भगवं पि य प्पभासो रायगिहे गणहरो जाओ। ___ (विभामवृ २ १ ३०३)
(आवनि ६४३-६४५)
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