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कालकरण
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कालविज्ञान
तीन-तीन मास के चार त्रिकपहला त्रिक--ज्येष्ठ, आषाढ़ और श्रावण । दूसरा त्रिक--भाद्रव, आसोज और कार्तिक । तीसरा त्रिक-मृगसर, पौष और माघ । चतुर्थ त्रिक-फाल्गुन, चैत्र और वैशाख । प्रथम त्रिक के मासों के पौरुषी प्रमाण में ६ अंगूल
जोड़ने से उन मासों के पादोन पौरुषी का छाया-प्रमाण । होता है । दूसरे त्रिक के मासों में ८ अंगुल, तीसरे त्रिक के मासों में १० अंगुल और चौथे त्रिक के मासों में ८ अंगुल बढ़ाने से उन-उन मासों का पादोन पौरुषी छायाप्रमाण आता है।
पौरुषी
छाया-प्रमाण
पादोन-पौरुषी
छाया-प्रमाण
अंगुल
पाद
अंगुल
पाद
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+
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+
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७. कालकरण
बलं च बालवं चेव, कोलवं थीविलोअणं । कालेवि नस्थि करणं तहावि पूण वंजणप्पमाणेणं । गराइ वणियं चेव, विट्री हवइ सत्तमी ।। बवबालवाइकरणे हिंऽणेगहा होइ ववहारो।। सउणि चउप्पयं नागं, किंसुग्धं करणं तहा।
(आवनि १०१८) एए चत्तारि धुवा, सेसा करणा चला सत्त ।। कालौ जो जावइओ जं कीरइ जमि जंमि कालम्मि । किण्हचउद्दसिरत्ति सउणि पडिवज्जए सया करणं । ओहेण नामओ पुण हवंति इक्कारसक्करणा ॥ इत्तो अहक्कम खलु चउप्पयं नाग किंछुग्धं ॥ (उनि १९७)
(उनि १९८-२००) काल के वर्तना, समय आदि अंग स्वभाव से ही होते
ज्योतिष में ग्यारह करण मान्य हैंहैं, अतः काल का करण नहीं होता । किंतु व्यञ्जनप्रमाण से कालकरण होता भी है। यहां व्यञ्जन का
बव, बालव, कौलव, स्त्रीविलोचन, गरादि, वणिज अर्थ है-वर्तना आदि के अभिव्यंजक द्रव्य--वर्तना विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न । इनमें परिणामी द्रव्य ।
प्रथम सात करण चल और अंतिम चार करण ध्रुव हैं। जिस काल में जो जितना किया जाता है, वह काल- कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को रात्रि में 'शकुनि' करण करण है। यह व्यवहार नय की अपेक्षा से होता है । बव, होता है। अमावस्या को दिन में 'चतुष्पद' तथा रात्रि में बालव आदि ग्यारह करणों के आधार पर अनेक प्रकार 'नाग' करण होता है । प्रतिपदा को दिन में 'किस्तुघ्न' का व्यवहार होता है।
करण होता है।
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