________________
रहता।
कामभोग
२००
कामभोग : उपमाएं कटकत्वेन विषस्योपमा यान्तीति विषयाः।
४. कामभोग : उपमाएं _ (उशावृ प १९०)
जहा य किपागफला मणोरमा विषय वे हैं, जिनके कारण धर्म के प्रति उत्साह नहीं
रसेण वण्णण य भुज्जमाणा।
ते खुडुए जीविय पच्चमाणा विषय वे हैं, जो आसेवनकाल में मधुर हैं और
एओवमा कामगुणा विवागे ।। परिणाम में कटु होने से विष की उपमा से उपमित हैं ।
(उ ३२।२०) २. द्रव्यकाम-भावकाम
जैसे किंपाक फल खाने के समय रस और वर्ण से
मनोरम होते हैं और परिपाक के समय क्षद्र जीवन का सहरसरूवगंधाफासा उदयंकरा य जे दव्वा ।
अन्त कर देते हैं, कामगुण भी विपाक काल में ऐसे ही दुविहा य भावकामा, इच्छाकामा मयणकामा ।।।
होते हैं।
(दनि ६९) काम के दो प्रकार हैं--
उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । द्रव्यकाम-मोहोदय में हेतुभूत द्रव्य-शब्द, रस
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ।। आदि विषय ।
उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया ।
दो वि आवडिया कूडडे, जो उल्लो सो तत्थ लग्गई। भावकाम इच्छाकाम --अभिलाषारूप काम और मदनकाम-विषयभोग की प्रवृत्ति ।
एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । ३. दिव्य कामभोग
विरत्ता उ न लग्गति, जहा सुक्को उ गोलओ ॥
(उ २५॥३९-४१) जहा कागिणि हेउं, सहस्सं हारए नरो।
भोगों में उपलेप होता है। अभोगी लिप्त नहीं अपत्थं अम्बगं भोच्चा, राया रज्जं तु हारए । होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है । अभोगी उससे एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए ।
मुक्त हो जाता है। मिट्टी के दो गोले-एक गीला और सहस्सगुणिया भुज्जो, आउं कामा य दिग्विया ।।
एक सूखा-फेंके गए । दोनों भींत पर गिरे। जो गीला अणेगवासानउया, जा सा पन्नवओ ठिई। था वह वहां चिपक गया। जाणि जीयंति दुम्मेह, ऊणे वाससयाउए।
इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बद्धि और कामभोगों में (उ ७।११-१३)
आसक्त होते हैं, वे विषयों से चिपट जाते हैं। जो विरक्त
आस जैसे कोई मनुष्य काकिणी के लिए हजार कार्षापण होते हैं, वे उससे नहीं चिपटते, जैसे सूखा गोला । गंवा देता है, जैसे कोई राजा अपथ्य आम को खाकर
"""दुहओ मलं संचिणइ, सिसणागु व्व मट्रियं ॥ राज्य से हाथ धो बैठता है, वसे ही जो व्यक्ति मानवीय
(उ ५।१०) भोगों में आसक्त होता है, वह देवी भोगों को हार जाता
कामभोगों में आसक्त व्यक्ति आचरण और
चिन्तन-दोनों से उसी प्रकार कर्ममल का संचय करता देवी भोगों की तुलना में मनुष्य के कामभोग उतने
है, जैसे शिशुनाग मुख और शरीर-दोनों से मिट्टी का । ही नगण्य हैं, जितने कि हजार कार्षापणों की तुलना में एक काकिणी और राज्य की तुलना में एक आम । दिव्य
__ अच्चेइ कालो तूरंति राइओ आयु और दिव्य कामभोग मनुष्य की आयु और काम
न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। भोगों से हजार गुना अधिक हैं।
उविच्च भोगा पुरिसं चयंति, प्रज्ञावान् पुरुष की देवलोक में अनेक वर्ष नयुत
दुमं जहा खीणफलं व पक्खी ।। (असंख्यकाल) की स्थिति होती है--यह ज्ञात होने पर
(उ १३।३१) भी मूर्ख मनुष्य सौ वर्ष जितने अल्प जीवन के लिए उन जीवन बीत रहा है । रात्रियां दौड़ी जा रही हैं । दीर्घकालीन सुखों को हार जाता है ।
मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं। वे मनुष्य को प्राप्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org